हमीद के दोहे
आपस में लड़िये नहीं, नई रोज़ इक जंग।
जीवन को करिये नहीं, तरह तरह से तंग।
पद की खातिर हो गया, अपनों का गद्दार।
फूल नहीं मिलने उसे, मिलने हैं बस खार।
लटकेंगे अब दार(फाँसी) पर,सारे बेईमान।
क्षणभर की जो मौज को,बन जाते हैवान।
दुविधा आ डालें नहीं , जीवन में व्यवधान।
चहरे पर तेरे रहे , खिली एक मुस्कान।
मुजस्समों पर वारते, जो हज़ारों करोड़।
तालीमी यदि खर्च हो, उठती पेट मरोड़।
ध्यान न उसपर दे रहे, जनता की जो माँग।
अगड़म बगड़म कर रहे खाकर बैठे भाँग।
रब को प्यारा वो बशर, जो करता इंसाफ़।
उससे होता और खुश, जो करता है माफ़।
— हमीद कानपुरी