गज़ल
कोयल का गीत एकांत में पुकारता है
शायद अपनों की मौजुदगी तलाशता है .
डाली अम्बुज पर काली बैठी झांकती है
दूर तक दृष्टि फैला हर क्षण आंकती है.
खालीपन ख़ामोशी में पेडो का दायरा सा
यही सब यादे अपनों की खोज ताकती है.
कही कोई गुजरी घटना दर्द की वजा है
लगता अकेलापन ही सजा का नापती है.
नज़ारे सभी ज़मीं को आनन्दमय बया में
तेरी आवाज़ का भी कोई वज़ा कांपती है .
सलामत जब तलक ज़हाँ नेह “मैत्री “है,
गीतों में बसी सदा दूसरों के लिए झांकती है.
— रेखा मोहन २०/१/२०१०