चार दिन की जिन्दगी है
हर दिन जिन्दगी तेरा एक पत्ता टूट रहा।
तेरे संग चलकर एक एक दिन छूट रहा।।
काँटे ही बिछे हैं क्या तेरी राहों में ,
कितने पहाड़ छुपे हैं तेरी पनाहों में।
कहीं तू झील है, कहीं तू सागर के जैसी-
कोई पार करता है, कोई यहाँ पर ढूब रहा।
हर दिन जिन्दगी…………..एक दिन छूट रहा।।
कई मंजिलो से होकर तू गुजरती गयी।
सांसों की माला से मोती बिखरती गयी।
तुझे परवाह नही कोई, तू चलती ही जा रही
अब तो ठहर जा कहीं, हर पल तुझसे रूठ रह।
हर दिन जिन्दगी…………..एक दिन छूट रहा।।
सावन में भी जल रही, कैसी ये तेरी आग है।
सूरज को देखते ही मचाती तू भागम भाग है।
पॉवों के छालों पर तुझको क्यों तरस आता नही।
कब तक तू दौडायेगी, हर कोई तुझको लूट रहा।
हर दिन जिन्दगी………………….
चार दिन की जिन्दगी है, मानती तू क्यों नही।
क्या (राज) है इस जगह पर, जानती तू क्यों नही।
पलकों में सावन पल रहे, मुड़ के कभी तो देख ले
चेहरे की झुर्रियाँ तो पढ़, दम मेरा अब टूट रहा।
हर दिन जिन्दगी…………………..
— राज कुमार तिवारी (राज)