उजाले की तलाश
संघर्ष का दूसरा नाम जिंदगी है ,यह बात माँ पापा घुट्टी की तरह उमा को बचपन से सिखाते आ रहे थे। सब कुछ जानते समझते हुए भी कहाँ चूक हो रही थी काश वो समझ पाती । अच्छे डिस्टिंक्शन मार्क्स से पास होते आई थी अब तक । दादा जी की बातों को मान कर पूजा पाठ भी दिनचर्या में शामिल कर लिया था। इन्टरव्यू से पहले अच्छी तरह सामयिक सामाजिक एवं राजनैतिक ज्वलंत मुद्दों पर भी गहरी पकड़ रखना भी सीख गई थी । फिर कहाँ कमी रह गई थी जिसे वह समझ नहीं पा रही थी ।
अपने आप चिंतन मनन करते वह नियत समय से बीस मिनट पहले साक्षात्कार के लिये पहुँच गई थी । ऑटो से उतरते वक्त साइड व्यू मिरर पर नज़र पड़ते ही चौंक गई । घबराहट का कारण कुछ कुछ समझ आने लगा था । सधे कदमों से सेक्यूरिटी गार्ड से पूछ कर बाथरूम की ओर बढ़ गई । चेहरे पर पानी छिड़कते हुए तरोताजा महसूस होने लगी , तभी किसी की आवाज़ सुन कर चौंक उठी !
“बिटिया मन की सुंदरता के आगे तन की सुंदरता कोई मायने नहीं रखती ।“आप इतनी सुंदर हैं फिर भी संवर रही हो ?आईना देखते हुए; क्या कभी खुद के अंदर झाँकना सीखा है ?”
“ऊपर के दाग सभी को दिखाई देते हैं , काश अंदर के दाग को देखने के लिए कोई आईना बन जाये तो अंधेरे में भी उजाले का अहसास हो ।”
उसकी बातों से उमा की रगों में भरपूर उष्मा एवं उर्जा का संचार महसूस होने लगा, आत्ममविश्वास से वह भर उठी । जो होगा देखा जायेगा ।
आईने ने अपना काम कर दिया ; उमा नियुक्ति पत्र को चूमते हुए अतिशीघ्र घर पहुँचने को बेताब थी ।
— आरती राय