मुक्तक/दोहा

दोहे रमेश के गणतंत्र दिवस पर

रचें सियासी बेशरम, जबजब भी षड्यंत्र !
आँखे मूँद खड़ा विवश, दिखा मुझे गणतंत्र !!

कहलाता गणतंत्र का, दिवस राष्ट्रीय पर्व !
होता है इस बात का, हमें हमेशा गर्व !!

हुआ पतन गणतंत्र का, बिगड़ा सकल हिसाब !
अपराधी नेता हुए, सिस्टम हुआ खराब !!

राजनीतिक के लाभ का, जिसने पाया भोग !
उसे सियासी जाति का, लगा समझ लो रोग !!

यूँ करते हैं आजकल, राजनीति में लोग !
लोकतंत्र की आड में, सत्ता का उपभोग !!

भूखे को रोटी मिले,मिले हाथ को काम !
समझेगी गणतंत्र का, अर्थ तभी आवाम !!

मात्र ख़िलौना रह गया अपना अब गणतंत्र !
भ्रष्टाचारी देश का, चला रहे जब तंत्र ! !

लोकतंत्र के तंत्र को, करते हैं बरबाद !
स्वार्थपथी गणतंत्र का, बदल रहे अनुवाद !!

रूप रंग गणतंत्र का, बदल गया है आज!
करते अब इस देश में, भ्रष्ट शान से राज !!

अपनो ने ही कर दिया,अपनो को परतंत्र !
आँखे अपनी मूँद कर, देख रहा गणतंत्र ! !

जिसको देखो कर रहा, वादों की बौछार !
और घोषणापत्र भी, बना एक हथियार !!

दूषित है अब देश का, बुरी तरह गणतंत्र !
राजनीति भी हो गई,बस सत्ता का यंत्र !!

राजनीति ने तंत्र के, दिए काट जब पंख !
कैसे तब गणतन्त्र का,बजता खुलकर शंख !!

एक दूसरे पर कभी, होना नहीं सवार !
लोकतंत्र का अर्थ है, बनिये जिम्मेदार !!

— रमेश शर्मा

रमेश शर्मा

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