क्रांतिकारी अजीमुल्ला खां रचित वह प्रथम राष्ट्रगीत जिसे अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था
भारतवर्ष वीरों की भूमि है। वीर रस से पगी इस पावन भूमि का कण-कण साक्षी है कि 1857 के स्वाधीनता समर में अंग्रेजी जुल्म और शोषण के विरुद्ध संपूर्ण देश समाज अपनी पूरी शक्ति और सामथ्र्य के साथ उठ खड़ा हुआ था। राजा, महाराजा, नवाब, साहूकार, सैनिक, किसान और मजदूर भाषा, क्षेत्र, जाति और पंथ- मजहब के तमाम भेद भूलकर हृदय में पवित्र राष्ट्रवाद धारण कर मेरठ, कानपुर, अवध, झांसी, जगदीशपुर, रामगढ़ (मंडला), नागपुर, नासिक आदि क्षेत्रों में कदम से कदम मिलाते हुए बहादुर शाह जफर को सम्राट घोषित कर कर्मपथ पर आगे बढ़े थे। लक्ष्य बस एक अंग्रेजी दासता से मुक्ति एवं स्वराज की साधना-उपासना। संपूर्ण देश में एक समवेत स्वर उभर रहा था, ‘‘फिरंगी मारो, फिरंगी भगाओ।’ अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए इस असीम जन प्रवाह में प्रेरणा, उत्साह और अदम्य शक्ति का संचार कर रहा था क्रांतिकारी अजीमुल्ला खां रचित एक राष्ट्रगीत ‘हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा’। महान क्रांतिकारी दो जन्मों की काले पानी की सजा प्राप्त वीर विनायक दामोदर सावरकर ने 1907 में लंदन प्रवास के समय लिखित ‘1857 का भारतीय स्वातंत्रय समर’ नामक ग्रंथ में इस गीत का उल्लेख करते हुए इसे भारत का प्रथम राष्ट्रगीत होने का गौरव प्रदान किया था।
लेकिन 1857 की क्रांति के बाद समय के गर्त में दबकर यह गीत लुप्त हो गया। वीर सावरकर ने इतिहासकारों एवं शोधकर्ताओं से यह अपेक्षा की कि वे उस प्रथम राष्ट्रगीत को खोजकर देश के सम्मुख प्रस्तुत करें ताकि आने वाली पीढ़ियां उससे परिचित होकर प्रेरणा ग्रहण कर सकें। इस ग्रंथ रचना से लगभग अर्द्धशताधिक वर्षों बाद भुसावल बम कांड के क्रांतिकारी डॉ भगवानदास माहौर ने अपने शोध ग्रंथ ‘1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिंदी साहित्य पर प्रभाव’ में उक्त राष्ट्रगीत प्रस्तुत किया और लिखा कि यह राष्ट्रगीत बिठूर के नाना साहब पेशवा के सचिव अजीमुल्ला खां द्वारा रचित है, जिनका समर्थन काकोरी केस के प्रमुख क्रांतिकारी एवं साहित्यकार भाई मन्मथनाथ गुप्त ने भी किया है। अजीमुल्ला खां के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर आधारित एक शोधपरक लेख प्रसिद्ध साहित्यकार एवं ‘राष्ट्रधर्म’ के पूर्व संपादक एवं क्रांतिकारी साहित्य को खोज-खोज कर प्रकाशित करने वाले क्रांतिकारी पंडित वचनेश त्रिपाठी ने ‘पांचजन्य (साप्ताहिक पत्र, दिल्ली) के 3 दिसंबर 1995 के अंक में लिखा जिसमें उन्होंने भी अजीमुल्लाह खां रचित झंडागीत का उल्लेख किया है। फरवरी 2003 में ‘राष्ट्रधर्म’ पत्रिका के विमोचन के अवसर पर लखनऊ में इस लेखक से भेंटवार्ता के दौरान पं. वचनेश ़ित्रपाठी ने इस गीत की विस्तार से व्याख्या करते हुए इसे अजीमुल्ला खां द्वारा रचित बताया था।
क्रांतिकारी अजीमुल्ला खां विरचित सोलह पंक्तियों का वह क्रान्ति-गीत इस प्रकार है-
हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।।
ये है हमारी मिल्कियत, हिन्दुस्तान हमारा।
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा।।
कितना कदीम, कितना नईम सब दुनिया से न्यारा।
करती है जरखेज जिसे गंगोजमुन की धारा।।
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा।
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा।।
इसकी खानें उगल रही हैं सोना हीरा, हीरा, पारा।
इसकी शानोशौकत का दुनिया में जयकारा।।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा।
लूटा दोनों हाथ से प्यारा वतन हमारा।
आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा।
तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा।।
हिन्दु, मुसलमां, सिख हमारा, भाई -भाई प्यारा।
यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।।
अजीमुल्ला प्रणीत 1857 के क्रांतिकारियों का यह कंठहार झंडागीत तत्कालीन क्रांतिकारी अखबार ‘पयामे आजादी’ जिसकी एक प्रति ब्रिटिश म्यूजियम में आज भी सुरक्षित है, में छपा तो जैसे देशवासियों में उबाल आ गया। चतुर्दिक अंग्रेजों के विरुद्ध लोग हथियार उठाने लगे। इससे अंग्रेज डर गए और ‘पयामे आजादी’ पर प्रतिबंध लगा दिया। उक्त अंक के प्रतियां ढूंढ-ढूंढ कर लब्त कर लीं। तब भी कुछ प्रतियां क्रांतिकारियों और अन्य देशभक्तों के पास बची रह गईं। लेकिन अंग्रेज अधिकारी और सिपाही पूरी शक्ति एवं सक्रियता से प्रतियां ढूंढते रहे और जिसके पास ‘पयामे आजादी’ की प्रति मिलती तो यदि वह हिंदू हुआ तो उसके मुख में गाय का मांस और मुसलमान हुआ तो सूअर का मांस ठूंस दिया जाता और उसे गोली मार दी जाती या फांसी पर चढ़ा दिया जाता। अंग्रेजी सत्ता इस गीत से इतना भयाक्रांत थी कि इसकी भनक भी किसी भारतीय के कानों पर नहीं पड़ने देना चाहती थी। क्योंकि इस गीत में व्यक्त विचार शान्तचित्त व्यक्ति में भी क्रांति की मशाल थामने और देश के लिए मर मिटने की उदात्त भावना भर सकने में समर्थ थे। निश्चितरूप से यह रचना श्रद्धेय बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की अमर रचना ‘वंदे मातरम’ गीत की पूर्व पीठिका थी।
झंडा गीत हमारे राष्ट्रगीतों की मालिका का सुमेरु और सिरमौर है। इस गीत में केवल देश का जयगान ही नहीं है बल्कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता का संदेश भी अन्तर्निहित है। इसमें गंगा-यमुना के पावन जल से सिंचित उर्वर भूमि, हीरा-सोना आदि खनिज संपदा प्रदायिनी रत्नगर्भा धरती मां की समृद्धि एवं वैभव का वर्णन मिलता है। इसके उत्तर में पर्वतराज हिमालय सजग प्रहरी की भांति देश-रक्षा में अडिग खड़ा है और दक्षिणी में सागर की लहरें नगाड़े-सा निनाद करती हुई जग सम्मुख उच्च स्वर से उद्घोषणा, रही हैं कि हमारा हिंदुस्तान पूरी दुनिया से न्यारा है जो स्वर्ग से भी प्यारा है। इसकी अपार संपत्ति से लालायित अंग्रेज दूर देश से आकर अपने कुटिल चाल और छल बुद्धि से प्यारे वतन को दोनों हाथ से लूट रहे ह। अंग्रेजी दासता की जंजीरे तोड़ने के लिए शहीद हमें ललकार कर खड़े होने का आह्वान कर रहे हैं। यह संभवत पहला अवसर था जब मातृभूमि पर जीवन अर्पित करने वालों को शहीद कहा गया था। हिंदू, मुस्लिम, सिख सभी परस्पर भ्रातृत्वभाव के नेह धागे से बंधे हैं और आजादी का झंडा थाम कर अंग्रेजों पर अंगारे बरसाने अर्थात संपूर्ण एक ही प्रहार में अंग्रेजों को देश से मार भगाने को संकल्पबद्ध हंै। देश को स्वाधीन करने की भावना को समझा जा सकता है। इस गीत में लुटेरी अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के लिए संघर्ष करने का आह्वान और प्रेरणा है। इसमें आजादी का झंडा थामने और उसे पूरी भक्ति भावना के साथ जन-जन के मन में स्थापित कर प्रणाम निवेदित करने की भावपूर्ण ललकार है क्योंकि यह झंडागात किसी व्यक्ति, बादशाह या शोषण करने वाली सामंती साम्राज्यवादी व्यवस्था का अंग नहीं अपितु यह भारतीय स्वतंत्रता का, जन-गण-मन के देश प्रेम, आस्था, सौहार्द, बंधुभाव, सुख-समृद्धि और स्वाभिमान का प्रतीक है। यह गीत केवल कुछ शब्दों का समुच्चय भर नहीं है बल्कि इसमें प्रवहमान जीवन है, क्रांन्ति की दहकती जाज्वल्यमान आग है। इसमें भैरवी राग है तो बासंती फाग भी।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’