हमीद के दोहे
सफल नहीं होगा यहाँ, अब कोई षडयंत्र।
धीरे धीरे हो गया , समझ दार गणतंत्र।
जिनके दिल में है नहीं,ज़र्रा भर भी प्यार।
नफरत से जुड़ते सदा, उनके देखो तार।
देश भक्ति का फूंकता, सबमें अद्भुत मंत्र।
इकहत्तर का हो गया , अपना ये गणतंत्र।
साठ महीने तक मिला,जिसको सतत अभाव।
उसको अब फुसला रहे, देख करीब चुनाव।
झूठे पहचाने गये , नहीं मिल रहा भाव।
सच्चों पर चलते नहीं, उनके हरगिज़ दाँव।
मुझ प्यासे को तू मिली, सुन्दर लेकर रूप।
सहरा में जैसे मिले, आब भरा इक कूप।
मन के हारे हार है , हार नहीं तू मान।
लौटेंगे बस जीतकर, क़दम बढ़ा ये ठान।
— हमीद कानपुरी