पुनर्विचार
”हांकने से पहले यह तो बताओ, कि जाना किधर है?” घोड़ागाड़ी के तीनों घोड़ों ने एक साथ कहा.
”मैं सारथि हूं, जिधर ले जा रहा हूं, उधर ही चलोगे और कहां चलोगे?”सारथि ने कहा.
”तुम हो कौन? हमारा मतलब है, तुम्हारा नाम क्या है?” घोड़ों की जिज्ञासा थी.
”तंज़ मेरा नाम है.” सारथि की आवाज में दंभ की झलक स्पष्ट थी- ”वही तंज़, जो आज के युग को चला रहा है! आजकल तो मेरा ही बोलबाला है!”
”त्रेता युग में एक धोबी ने तंज़ कसा था, और सीताजी को वनवास हुआ था”. बांईं ओर चलने को तैयार घोड़े ने याद दिलाया.
”द्वापर युग में द्रोपदी ने तंज़ कसा था, और महाभारत का विभीषक युद्ध हुआ था”. दांईं ओर चलने को तैयार घोड़े ने अपना मत व्यक्त किया.
”आज के युग की तरह तुम्हें जिधर चलना हो चलो,” सामने चलने को तैयार घोड़े ने कहा- ”यह तो जब तक एक तंज़ का अर्थ समझने की कोशिश करता है, एक और तंज़ उछाला जाता है. इसे तो यह भी नहीं पता, कि किस तंज़ के इशारे पर गाड़ी हाँके और किसकी धूल फांके. यह बेचारा तो खुद ही दिग्भ्रमित है.”
घोड़ागाड़ी वहीं अड़ी खड़ी थी. तंज़ अपनी भूमिका के बारे में पुनर्विचार करने को उद्यत हो गया था.
तंज़ अभी तक वहीं अड़ा है, घोड़ागाड़ी अभी तक वहीं कह्ड़ी है-
अब तो जागो, सही राह पर, अपने रथ को मोड़ो,
तंज़ करना छोड़ो, ठोस काम से नाता जोड़ो.