राज
समा और मनु ने कमरे में प्रवेश किया ही था कि माँ कीं आवाज़ आती है। “आ गए तुम दोनों। समा ज़रा मेरे पास आना।”
“अभी आती हूँ माँ!” कहकर हाथ-मुँह धोने बाथरूम की तरफ़ मुड़ जाती है। मनु वहीं कमरे में बैठ जाता है।
“हाँ माँ अब बताओ क्या करना है?”
“ले मनु को पानी और चाय दे दे, और तुम भी पी लो।“ एक ट्रे में दो कप चाय और दो पानी के गिलास पकड़ाते हुए माँ।
“माँ आप भी तो अभी आफिस से आईं हैं आप भी थोड़ी देर आराम कर लीजिए।”
“नहीं बेटा मुझे अभी बहुत काम है, तुम भी चाय पीकर यहाँ आ जाओ।”
समा थोड़ी देर बाद माँ के पास आती है और रसोई में उनका हाथ बँटाने लग जाती है। परंतु उसके मन में बचपन से एक प्रश्न हिचकोले खा रहा था, सो आज ख़ुशनुमा माहौल देखकर उसने पूछ ही लिया। “माँ क्या हम स्त्रियों को भगवान ने ज़्यादा ताकतवर बनाकर इस दुनिया में भेजा है?
माँ उसको देखकर मुस्कुरा देती है, फिर से मुड़कर काम में लग जाती है। समा माँ का हाथ पकड़कर “माँ आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया।”
“देखो बेटे! इसका जवाब तो मैं भी बचपन से खोज़ रही हूँ और आज तक मेरी भी समझ से बाहर रहा है। मेरी क्या? किसी की भी समझ से बाहर है, यही तो वह राज़ है जो आज़ तक खुल न सका, न ही आगे खुलने की कोई उम्मीद है?” कहकर दोनों सास-बहु ढहाके मारकर हँसती हैं।
दोनों की आवाज़ सुनकर मनु और उसके पापा भी वहाँ आ धमकते हैं और फिर सब ज्यों का त्यों चलने लगता है।
मौलिक रचना
नूतन गर्ग (दिल्ली)