लघु कथा – जेंडर समानता
कमलाकर – “मानवाधिकारों की पैरोकार संस्था विश्व आर्थिक संगठन के अनुसार दुनियाभर की महिलाएं करोड़ों घंटे बिना पैसों के घर का काम-काज करती है । उनके काम का योगदान भारत के शिक्षा बजट से 20 गुना से भी अधिक है श्री मानवेन्द्र जी।”
मानवेन्द्र- इसके लिए हमारी शैक्षणिक व्यवस्था दोषी है श्री कमलाकर जी ।
“प्राचीन काल से गाँवों में खेती-बाड़ी में महिलाओं का भी योगदान रहा है । शहरीकरण होने और मध्यकाल में पर्दा प्रथा व्यवस्था का चलन बढ़ने से औरतें पूर्णरूपेण पुरुषों पर निर्भर हो गई । कुछ लोग तो औरत को पाँव की जूती तक समझने लगे गए ।”
कमलाकर – ये बात तो है । “अब पूरे परिवार का बोझ मुखिया पर होने से गरीबी बढ़ रही है । बढ़ते असंतोष, मनमुटाव और विशेतः गम्भीर बीमारियों की दशा में घरेलू महिलाओं को संकट का सामना करना पड़ता है । अतः महिलाओं का स्वावलम्बी होना बहुत जरूरी हो गया है ।”
मानवेन्द्र – “ठीक कह रहे हो कमलाकर जी । किन्तु यहाँ जो पढ़ी-लिखी महिलाएं नौकरी करती है, उन्हें नौकरी के अतिरिक्त घर का सारा काम भी करना पड़ता है, जिससे वे पूरे वक्त ही कोल्हू के बैल की तरह काम मे ही लिप्त रहती है ।”
मानवेन्द्र जी ने कहना जारी रखा – स्कूलों में लड़को को शिक्षा के साथ साथ गृह निर्माण, कारपेंटरी आदि कौशल कार्यों के साथ सिलाई, रसोई और प्रेस आदि कार्य सिखाए जाने चाहिए ताकि छात्र, खासतौर पर लड़के भी लड़कियों की तरह घर का काम काज करना सीखे ।
स्पेन सहित कई देशों में ये प्रयोग सफल रहा है ।
कमलाकर – ये तो बढ़िया सुझाव है । घर मे तनाव कम होकर माहौल भी खुशनुमा रहेगा । सभी शिक्षकों और अभिभावकों द्वारा इसके लिए पहल कर बेटों को भी घर के काम मे हाथ बंटाने को प्रेरित करना चाहिये ।
— लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला