कविता

बसंत तुम आये

बसंत तुम आये
हर वर्ष की तरह
पर फुर्सत ही कहाँ है ?
आज के इंसान को
तेरे स्वागत की
तेरे सत्कार की
ना रही इसके पास वो दृष्टि
जो निहार सके तुझे
आज लगा लिए गये
अपने मुताबिक
स्वार्थ के बगीचे
जिसमें खिल रहे
छल-कपट, द्वेषता के फूल
जिनसे आती हैं
कटुता की गंध
हे बसंत !
तुझे जाना होगा
इस धरा से
अपमानित होकर
क्यूंकि अब यहाँ के लोग
सौदाई हो गये हैं
किसी ओर बसंत के…

— व्यग्र पाण्डे

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201