व्यंग्य – देशभक्ति का वायरस
हमारे देश में पहले देशभक्ति की लहर साल में दो बार अनिवार्य रूप से आती थी- स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस पर । अब यह लहर चुनाव होने पर चल पड़ती है। चुनाव के समय की देशभक्ति अपने साथ देशद्रोह की भी लहर लाती है। जिसका अभाव राष्ट्रीय पर्वों में दिखाई देता है। ये बात और है कि पढ़े-लिखे लोग चुनावों को भी त्यौहार कहते हैं। जब-जब विदेशी आक्रमण होते हैं देशभक्ति के कुकुरमुत्ते जाग उठते हैं, जिन्हें बाद में भ्रष्टाचार की धूप सुखा देती है।
मुझे बचपन में यह पढ़कर बड़ा गर्व होता था कि मैं देशभक्तों के देश में पैदा हुआ हूँ। नकली मूँछें बनाकर गाता था-ये देश है वीर जवानों का। ज्ञान में वृद्धि होने पर समझ आया कि यदि अंग्रेज ना आते तो हम देशभक्त न बन पाते। राजभक्त ही रह जाते। मेरी कलम किसी राजा-नवाब की चौखट पर डेलीवेजेस पर पानी भर रही होती। न जाने कितने ‘राष्ट्रीय कवियों’ की भ्रूण-हत्या हो जाती। आजादी के बाद पाकिस्तान का निर्माण हमारी देशभक्ति को पुष्पित-पल्लवित करता रहा। पाकिस्तान ना बनता तो भारत-भूमि देशभक्तों के नाम पर अकालग्रस्त घोषित कर दी जाती।
वर्तमान भारत में राजनैतिक दल एक-दूसरे को देशद्रोह के प्रमाण-पत्र बाँटकर, अपनी देशभक्ति का प्रमाण देते हैं। एक दल भूतपूर्व प्रधामंत्री पर कीचड़ उछाल कर देशभक्त बनता है तो दूसरे को वर्तमान प्रधानमंत्री के चेहरा पर कालिख पोतने में देशभक्ति का सुख मिलता है। विचित्र स्थिति है। लगता है हमाम में सभी नंगे नहीं, बल्कि ये हमाम ही नंगों का है। आजकल चुनाव आते ही देशभक्ति के वायरस पनपने लगते हैं। अलग-अलग फैक्ट्री के अलग-अलग वायरस। इनकी पकड़ गहरी होती है। जो किसी को चम्मच तो किसी को भक्त बना देती है। इनका इलाज संभव नहीं। इनको मारने के लिए फिर एक नयी एंटीवायरस-फैक्ट्री बन जाती है जिसमें से नये किस्म के देशभक्त उत्पन्न होते हैं। ये देश, देशभक्तों की खदान बनता जा रहा है, जिसे देशद्रोहियों से खतरा है। सच्चे देशभक्त आए दिन ताबूत के अंदर तिरंगे में लिपटकर अपने रोते-बिलखते आँगन में पहुँच रहे हैं।
यह देश अब पढ़े-लिखों का देश बन गया है। इसे अनपढ़ों फे नहीं, विद्वानों से खतरा है। ये विद्वान, उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करना जानते हैं। विद्वान, रंगा सियार बन जाता है तो जनता को अपनी अँगुलियों पर नचाता है। इसकी टोपी उसको पहनाता है। अपनी टोपी सलामत रखने के लिए दूसरे की टोपी उछालता है। दूसरों के कंधों पर बंदूक रखकर अपनी नाक ऊँची करता है। दूसरों की काटता है। अंगुली कटाकर देशभक्तों के नामवाली फेहरिस्त बढ़ती जा रही है। देशभक्ति कहीं शोषित हो रही है। कहीं पीड़ित तो कभी आरक्षित। सबकी अपनी डफली है और अपना-अपना राग। यही देशभक्तों की परिभाषा है और पहचान।
एक बात बताऊँ? मानोगे? वास्तव में हमें देशभक्तों की नहीं मातृभूमि के भक्तों की ज़रूरत है। देश को खतरा दाढ़ी और चुटिया धारी देशभक्तों से है। इनके कारण हम ‘हिन्दुस्तानी’ और ‘भारतवासी’ हो गये हैं। देश बँट सकता है। जैसे दशकों पहले बँटा था। मातृभूमि नहीं। जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसि। कृपया मातृभूमि को बचा लीजिए।
— शरद सुनेरी