हिम आच्छादित धरती रहते
हिम आच्छादित धरती रहते,
हिय वसंत हम कितने देखे !
भावों से भास्वर जगती पै,
आयामों के पहरे निरखे !
सिमटे मिटे समाये कितने,
अटके खटके चटके कितने;
चोट खसोटों कितने रोये,
आहट पाए कितने सोये !
खुल कर खिल कितने ना पाए,
रूप दिखा ना कितने पाए;
मन की खोह खोज ना पाए,
तन का दर्द मिटा ना पाए !
प्रकृति पर्व जब मना रही थी,
कितने ध्यान वहाँ रसकर पाए;
पुरुषोत्तम जब होली खेले,
फागुन फाग कौन लख पाए !
रंग बिरंगे फूल धरा जब,
चहे सुषुप्ति शिशिर झटोले;
‘मधु’ मन मौसम धूप खिला कर,
बौराई सरसों से खेले !
— गोपाल बघेल ‘मधु’