गज़ल
करके सितम मुझपे वो मुँह छुपा रहे हैं
हम ज़ख्म-ज़ख्म होकर भी मुस्कुरा रहे हैं
निकलेगी इधर से ही उनकी सवारी शायद
सब लोग रास्ते पे आँखें बिछा रहे हैं
कहते हैं जो कभी भी नहीं नाम सुना मेरा
मेरी गज़ल अकेले में गुनगुना रहे हैं
गुलज़ार है ये महफिल यूँ ही न जाने कबसे
कुछ लोग जा रहे हैं, कुछ लोग आ रहे हैं
जिनके ज़मीर पर लगे हैं बेशुमार धब्बे
वो राह की मिट्टी से दामन बचा रहे हैं
— भरत मल्होत्रा