लघु – हास्य — जाती हुई वह
अच्छा तो तुम जा रही हो ?अब कैसे कहें कि जाओ।और कैसे कहें कि मत जाओ। हम कुछ भी तो नहीं कह सकते। क्योंकि न तो तुम हमारे कहने आती हो तो जाओगी भी क्यों? अब तुम्हें जाना है , तो जाना ही है। अपना कोई बस नहीं। कहते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा कि जाओ। क्योंकि अगले वर्ष तुम्हें फिर आना है। हर आने वाले को जाना तो होता ही है। किसी का आना जितना सुखद होता है, उसका जाना ,उतना ही दुःख भी देता है। हर अच्छे या बुरे में कुछ अच्छाइयाँ भी होती हैं और कुछ बुराइयाँ भी होती हैं। सच कहें तुम्हारे भीतर भी बहुत- सी अच्छाइयाँ थीं औऱ बुराइयाँ भी थीं। अब तुम जा ही रही हो ,तो बुरी बातों की चर्चा क्यों की जाए , लेकिन यह एक साहित्यिक व्यक्ति की आवश्यक विवशता है कि उसे उभय पक्षों को देखना पड़ता है ,तो उनकी चर्चा करना भी आवश्यक हो जाता है। इसलिए इस नाचीज़ का यह विनम्र अनुरोध है कि तुम बुरा नहीं मानोगी। अब तुम जा तो रही ही हो। विदाई के क्षण बहुत ही भावुक करने वाले होते हैं। तुम्हें भी जाते हुए देखकर हम भावुक हो रहे हैं । पर क्या करें ? बस अब सीधे से इस बात पर आते हैं कि पहले अच्छाई की बात करें या बुराई पर बृहद आख्यान दें। क्योंकि एक सिद्धांत यह भी है कि अंत भला तो सब भला । इसलिए पहले बुराई का वृतांत ही बखान कर लें ,तो उत्तम होगा।
जब शुरू -शुरू में तुम्हारा आगमन हुआ तो बड़ा सुखद लगा। एक हल्के से चादर में ही तुम्हारे स्पर्श से देह – रक्षा हो जाती थी। धीरे -धीरे दशहरे के बाद तुमने अपने हाथ – पैर फैलाने शुरू कर दिए तो हम कम्बल का सम्बल लेने को उसकी आवश्यकता महसूस करने लगे और कम्बल के नीचे जाकर शरण ले ली । उसके बाद दीवाली के दिये भी जल गए तो जैसे तुम अपने यौवन पर आ गई औऱ उसकी जोर – आजमाइश हमारे ऊपर करने लगीं। गौरैया , कबूतर , फाख्ता जैसे छोटे और भोले पखेरू परेशान होने लगे। उनके घोसलों में कोई गद्दे -रजाई तो नहीं बिछे थे , इसलिए वे बेचारे अपने पंखों में ही सिमटकर रहने को विवश हो गए। कौवे भी पेड़ की डालियों से चोंच खुजलाने लगे। गाय – भैंसे तुमसे परेशान होकर रँभाने – कांपने लगीं। धीरे -धीरे तुम्हारे कोहरे ने खेतों ,सड़कों , गाँव , नगर, नदी , मैदान , आसमान सबको अपने आगोश में ले लिया कि वे परेशान हो गए। गरीब बेचारे क्या करते ? उनके पास इतने पैसे ही कहाँ थे ,जो कि वे तुमसे बचने का कुछ उचित प्रबंन्ध कर पाते ! अमीरों ने तो अपने मोटे -मोटे गद्दे -रजाइयों की शरण ले ली। गर्म भोजन , ग़ज़क , मूंगफली ,गर्म चाय कॉफी, का आनंद उठाने लगे। कुछ तो पिकनिक मनाने और बर्फ से खेल खेलने के लिए पहाड़ी यात्रा पर निकल गए। जब नोटों से तिजोरी गर्म हो तो काहे की सर्दी -गर्मी ! उन्हें तो बारह मास वसन्त ही है। इसलिए धनाढ्यों को मौसम की सर्दी गर्मी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये बात तो माननी ही पड़ेगी। गरीबों को तो धूप औऱ आग का सहारा ही तुमसे रक्षा कर सकता है। सो वे करते रहे। जो शरीर से कमजोर या बीमार थे , वे बहुत से लोग तो तुम्हारे ही कारण भगवान को प्यारे हो गए।नेताओं, अमीरों, सेठों , अधिकारियों, के लिए इस बात का कोई असर नहीं पड़ता कि कौन सा मौसम है , वे तदनुरूप अपने को बदल पाने में सक्षम जो हैं!
परन्तु हमसे पूछो कि तुम्हारे आगमन के बाद हमारे ऊपर कैसी बीती। रात में टॉयलेट में घुसना भी ऐसा लगे कि बर्फ के घर में घुस रहे हैं। नहाने की कौन कहे ! मुँह धोना भी एक दुस्साहसिक कठोर कार्य लगे ! पानी पीने के लिए गिलास उठाएं तो हाथ की अंगुलियाँ ही गल -गल जाएँ! जैसे सारा घर फ्रिज ही हो गया हो। हम लोग घर में न रहकर फ्रीजर में बिस्तर लगाए बैठे हों! जमीन पर जूते -चप्पल में भी पैर रख पाना मुश्किल ! गर्म खाने की कोशिश करें तो मिनटों में खाना ठंडा! रात को सोने की कोशिश करें तो लिहाफ से चेहरा तक बाहर निकल पाना मुश्किल! नहाना भी मजबूरी। जितना हो सकें ,पानी से रखते दूरी! पर जरूरी काम तो निपटाने ही पड़ते। वहाँ गर्म पानी ले नहीं जा सकते । हाथ भले धो लीजिए। अब हमारे लिए पत्नी जी कितनी बार पानी गरम करे ! हाथ धोने को अलग , मंजन को अलग, पीने को अलग औऱ नहाने की तो सोचना ही नहीं? गरम से नहाएं तो ठंड ज्यादा लगे , ठंडे से नहाया न जाये। हाए ! हाए !!
एक बात की चर्चा और । अगर सर्दी में स्वेटर बुनाई की चर्चा नहीं की गई तो सब बेकार। हमारी बहनों , माताओं, भौजाइयों , चाचियों , पत्नी और सालियों को स्वेटर बुनने को न मिले तो सर्दी किस काम की ? कुछ न कुछ बुनाई और साथ ही साथ सास -बहुओं की निर्दोष बुराई – भलाई,
जैसे खटाई के साथ मिठाई: का कार्यक्रम चलते रहना ही चाहिए। कभी उन के गोले घर में खत्म होने नहीं चाहिए। इसलिए कभी जर्सी , कभी स्वेटर , कभी मोजे , कभी दस्ताने तो कभी कार्डिगन बुनने का प्रोग्राम निरन्तरता में चलता रहता है। चाहे धूप में बैठकर बुनो या लिहाफ़ में , मनोरंजन औऱ समय व्यतीत करने ,गप्पें लड़ाने का इससे अच्छाअवसर कोई नहीं।आम के आम गुठलियों के दाम। कितना बढ़िया काम। आराम भी काम भी। ये काम केवल और केवल सर्दी में ही होता है। गर्मी या बरसात में नहीं होता। आवश्यकता अविष्कार की जननी जो है।और मज़े की बात ये है कि इस पर एकाधिकार केवल नारियों का ही है। पुरुष वर्ग ये काम नहीं करता । यदि साहस करे भी तो उसके सेक्स चेंज होने का खतरा जो बढ़ जाता है। यदि चेंज नहीं भी हो तो भी वे अपनी ही श्रेणी में बेहिचक शामिल कर लेती हैं।
अब कुछ ज्यादा ही हो रहा है। तुम्हारे आने के भी कम गुण नहीं। सर्दी की सब्जियां, चने , सरसों के साग की बात ही निराली है। उसमें भी बाजरे की रोटी , उसका घी मलीदा , ग़ज़क , मूँगफली, फूलों की महकती बहार, भरकाते हुए ऊनी कपड़े , रजाइयां , गद्दे ,कम्बल , शाल, स्वेटर , सूट, कार्डिगन , जरसी आदि न जाने कितने फैशन और उनके रूप , जिनका जिक्र करना तक मुश्किल! बाजार पटे पड़े हैं। दुकानों में ग्राहकों का हज्जुम लगा हुआ है। लग रहा है कि हर ग्राहक जल्दी में है। कहीं माल खत्म न हो जाये ? होड़ लगी हुई है। बच्चों , युवतियों को नए – नए फैशन के गर्म वस्त्र खरीदने की उमंग देखते ही बनती है। जिसकी जेब में जितना पैसा है , उसी नाप तोल में वह पसंद कर रहा है। आख़िर जाड़ा आता ही इसलिए है कि नए -नए फैशन के कपड़ों से देह को सजाया जाए !गर्मी में तो फिर देह दिखाने का कम्पटीशन जो करना है। जितना कम पहनोगे उतने ही आधुनिक कहलाओगे।क्योंकि फैशन के लिए , देह – प्रदर्शन के लिए किसी डिग्री या शैक्षिक योग्यता की जरूरत नहीं है। बल्कि कहना तो यों चाहिए कि योग्यता फैशन नहीं करती। अब ये कहने की भी ज़रूरत नहीं है कि कौन करता है फिर ? अक्लवन्द को इशारा काफी। समझने वाले / वाली समझ गए , न समझें वे अनाड़ी ।
चलो अब जा रही हो तो अब जाओ। फिर अगले वर्ष आओ। हमारी ओर से हे सर्दी देवी ! शुभ विदाई। बूढों को सताना मत। जल्दी से आना मत। अब देखो ! माघ मास की पूर्णिमा आने वाली है। वसंत का शुभ आगमन का संकेत मिल गया है। फाल्गुन में टेसू , गेंदा , गुलाब आदि के फूल महकेंगे। होली में नए रंग बिखरेंगे । भरे हुए दिल से तुम्हें हमारी ओर से विनम्र विदाई ! पुनः आगमन के लिए।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’