वन-संपदा
१-
दाता बेटा सौ बुरे, जो नहिं जाने धर्म।
व्यभिचारी या हों असुर, करते फिरें कुकर्म।
करते फिरें कुकर्म, ज्ञान से बिल्कुल खाली।
बात बात में बात, और देते हों गाली।
होता है तरु नेक, धूप से हमें बचाता।
करे पथिक विश्राम, वृक्ष होता है दाता।
२-
वृक्ष लगाए जो पुरुष, पाले पुत्र समान।
ऐसे नर को ही कहें, महापुरुष भगवान।
महा पुरुष भगवान, प्रकृति का है रखवाला।
पुण्य आत्मा जान, व्यक्ति वह होय निराला।
करे पुत्रवत प्यार, सिँचाई सदा कराए।
पाता जग में नाम,मनुज जो वृक्ष लगाए।
३-
मेरे प्यारे मित्रवर,भाग्यवान हैं वृक्ष।
धर्म भलाई कर्म हित ,होते हैं ये दक्ष।
होते हैं ये दक्ष, स्वयं नभ तल पर रहते।
वर्षा सर्दी धूप, हवा के झोंके सहते।
करते हैं उपकार, वृक्ष है जग से न्यारे।
करो काटना बंद,सुनो अब मेरे प्यारे।
४-
प्यारे तरुवर काटना, है जघन्य अपराध।
देते हैं फल अन्न तरु, बिना भेद निर्बाध।
बिना भेद निर्बाध, करें जन-जन की सेवा।
होते पुत्र समान, सदा कर तरु देते मेवा।
कुआँ बावड़ी वृक्ष, लगाएं नहर किनारे।
हरे वृक्ष मत काट, प्रेम कहता है प्यारे।
— प्रेम सिंह राजावत “प्रेम”