गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल – ज़माना जानता है हम, वफ़ादारी निभाते हैं

अपने दुश्मनों को भी, गले हँसकर लगाते हैं,
ज़माना जानता है हम, वफ़ादारी निभाते हैं।

जो कायल हो तबस्सुम के, हमारे जान लो इतना,
दहकती आग दिल में है, जिसे लब पर सजाते हैं।

ज़माने को अंधेरों का ख़जाना, बाँटनेवालों
वो दीपक हैं कि सूरज को, नयी राहें दिखाते हैं।

खड़ी करते दिलों के बीच, जो दीवार नफ़रत की
मगर हम प्यार की बारूद से, उसको गिराते हैं।

ज़रा उनकी शराफ़त का तमाशा, देख लो यारो
वो मेरे आँसुओं से दीप, आँगन के जलाते हैं।

ज़माने की निग़ाहों में गिराना चाहते थे, जो
ये आलम है कि, वो हमसे नहीं नज़रें मिलाते हैं।

छिपाकर किस तरह दर्दे-जिग़र, महफिल सजाना है
नया इक फ़लसफ़ा, इस दौर में तुमको बताते हैं।

दग़ाबाजों की दुनिया में, वफ़ा का खून होता है
ज़माना जानता है हम वफ़ादारी निभाते हैं।

‘शरद’ हैरान है कि क्या करें, अब सामने उनके?
उन्हें जितना मनाता हूँ, वो उतना रूठ जाते हैं।

शरद सुनेरी