कितना नजदीक था वह.
कितना नजदीक था वह.,,,,,,,,,,,.,,,,,
चार कदम की दूरी पर ही तो था वह
आवाज़ भी देना चाहती थी उसे।
मगर अफसोस,नहीं पुकार सकी।
बुलाकर कहती भी तो क्या?
दिलों की दूरियों ने तय नहीं करने दिए,
चंद कदमों के वे फासले !
कैसे पुकारती ?क्यों पुकारती?
बिना कुछ कहे,बिना कुछ बोले,
एक लंबे इंतजार के साथ,
छोड़ गया था मुझे,मेरे हालात के साथ।
न कोई ख़बर,न कोई पता।
दिल में एक तड़प,क्या हुआ होगा?
क्यों नहीं बताया उसने अपनी उलझन
सोचती रही थी कई दिनों तक।
इतने महीने बाद मिला भी तो
अजनबी की तरह।
चाहती थी कि चीखकर पूछूं उससे,
बताऊं अपनी उस बेचैनी,उस तड़प को।
उस परवाह को जिसने मुझे सोने नहीं दिया
कई दिनों तक।
दिखाना चाहती थी उन आंसुओं को,
जो सूख चुके थे बहते बहते।
पूछना चाहती थी उस वजह को,
जिसके कारण वो चला गया था,
अचानक ,बिना किसी खबर के।
अपने सारे प्रश्नों को दिल में दबाए,
चुपचाप चली आई मैं।
पता नहीं उसने मुझे देखा होगा कि नहीं
देखता तो शायद पुकारता।
अरे,देखा होगा,मिलना नहीं चाहा होगा।
मिलना चाहता तो घर अा जाता,
वहीं तो हूं आज तक,
जहां छोड़कर गया था वह।
नहीं बदला था ठिकाना अब तक,
कहीं किसी रोज़ वह लौटे,
तो मुझे वहीं पाए,यह सोचकर।
मगर न वो लौटा न कोई खबर ही ली
कैसे आवाज़ देती उसे?
चंद कदमों के उस फासले को,
कैसे तय कर लेती?
— कल्पना सिंह