होली पर्व
होली का पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन खेला जाने वाला एक प्रसिद्ध त्योंहार हैं । मान्यता हैं कि हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद को उनकी बुआ होलिका ने उन्हें पथ भ्रष्ट करने के लिए दंड हेतु आग में लेकर बैठ गई थी । जिससे कि प्रहलाद की मृत्यु हो जाए किन्तु होलिका स्वयं जलकर भस्म हो जाती हैं जबकि होलिका को आग से न जलने का आशीष प्राप्त था । फिर भी प्रहलाद बच जाता हैं। होलिकी की मृत्यु हो जाती हैं। यहाॅ॑ पर हम स्त्रियों के निकृष्ट व्यवहार को भी देख सकते हैं ।जो कि तथाकथित वर्तमान समाज में समय-समय पर देखने को मिलता हैं किन्तु उनका स्वरूप भिन्न हो चला हैं । अतः यह पर्व नैतिकता का ज्ञान देता हुआ सही दिशा में कार्य करने का संदेश देता हैं। यही कारण हैं इसे उल्लास का पर्व कहते हैं । चारों ओर इस समय हास– परिहास देखने को मिलता हैं कई मुहावरे और लोकोक्तियां प्रसिद्ध हैं जैसें –
‘बुरा न मानो होली हैं’
वही गाॅ॑व की चौपालों पर स्त्रियों के लोकगीत, ठुमरी आदि सुनने को मिलता हैं जैसें–
‘ होलियां में उड़ले गुलाल मंगेतर मांगी रे तरसे ,
मारी रे मंगेतर झुमका वारी,
झुमका लायो रे नबाब मंगेता मांगी रे तरसे।’
और यदि हिंदी साहित्य की बात करें तो सर्वप्रथम हमें मथुरा का ग्वाला और वृषभानु दुलारी राधा का नाम याद आता हैं जहां कवि सूरदास जी लिखते हैं –
‘ ब्रज में हरि होरी मचाई
इत्ते आई सुघर राधिका, उततें कुंवर कन्हाई
खेलत फाग परसपर हिलमिल, शोभा बरनि न जाई
नंद घर बजत बधाई ।’
वही रीतिकालीन कवि पद्माकर रंग और प्रेम की तुलना करते हुए लिखते हैं–
‘एकै संग हाल नंद लाल गुलाल और गुलाल दोऊ
कहन गए ते भरी आनंद मढैं नहीं
धोए– धोए हारी पद्माकर तिहारी सोए
×– ×– × ×
गढियों अबीर पैं अहीरो को कढैं नहीं ।।’
प्रेम के पीर कहे जाने वाले कवि घनानंद जी ब्रज भाषा में विरह से व्याकुल प्रेमियों के होली की व्यथा कैसें होती हैं उसका वर्णन करते हुए लिखते हैं –
‘ कहां एतो पानी तो बिचारी पिचकारी धरै
आंसू नदी नैनन उमंगिए रहति हैं
कहां ऐसी रांचनि हरद– केसू– केसर में
जैसी पियराई गाय पगिए रहति हैं ।’
यह पर्व सभी धर्मों को मिलन का संदेश देता हैं यहीं पर मुसलमान कभी कहें जाने वाले नजीर अकबराबादी लिखते हैं–
‘जब फागुन रंग चमकते हो, तब देख बहारें होली की
और दफ के शोर खड़कते हो, तब देख बहारें होली की ।’
होली ब्रज की संस्कृतियों से घुला– मिला हैं होली का जिक्र और कन्हैया बस यही संतुलन का पर्याय हैं श्रीकृष्ण को यदि हम एक व्यक्ति के रूप में देखे तो उन्होंने सर्वप्रथम कृषिधन, पशुधन पर बल दिया और अपने इसी कार्य से एक व्यवसाय स्थापित कर पाए । जिसे वर्तमान समय में एक वर्ग विशेष अपना पारंपरिक व्यवसाय समझता हैं वस्तुत हिंदी साहित्य में ऐसे बहुत सारे कवियों के विचारों को पढ़कर लगता हैं कि होली प्रेम सौहार्द्र का पर्व हैं जिसे हर व्यक्ति अपने जीवन में लाना एवं पाना चाहता हैं कोरी कल्पना मात्र नहीं अपितु प्रेम का संगम स्थापित करने एवं स्थायित्व को बनाए रखने की प्रेरणा देता हैं किस प्रकार कई रंगों के साथ हो जाने के बावजूद स्वयं अपनी पहचान करा पाते हैं हम बस यही हृदयस्पर्शी प्रेम पर्व की ओर ले जाता हैं जहाॅ॑ आत्मा का आत्मा द्वारा मिलन होता हैं इसमें हम परमात्मा को माध्यम नहीं बनाते हैं बस प्रेम ही पूजा हैं इसी विषय को कर्तव्य बोध में स्वीकार करते हैं इसी सन्दर्भ में कवि पद्मा कर जी लिखते हैं–
‘लला फिर आइहौं खेलन होली ’
अतः हम कह सकते हैं कि होली का त्यौंहार हर वर्ग के लिए एक प्रेम का विषय हैं। सामाजिक संतुलन बनाए रखने का विषय हैं। परस्पर तालमेल का विषय है। यह किसी धर्म–जाति सम्प्रदाय की भावना को आहत नहीं करता । मात्र प्रेम को प्रदर्शित करता हुआ एक प्रतिबिंब स्थापित करता हैं । जिससे व्यक्ति प्रेरणा लेकर नैतिकता एवम् मानवता की ओर अग्रसर होकर सार्थक पथ पर प्रेम पूर्वक जीवन यापन कर सकें । और इस पर्व को गीतों के माध्यम से आनन्द लेते हैं–
‘ ढोलक की थाप पर बजते हैं गीत
फागुन के फाग पर होली के गीत ।
बाहों में मीत संग गाए वो गीत
रंग – गुलाल संग खेले अबीर ।
शीशे के जाम पर प्याले का गीत
होली है सारे गाओ प्रेम के गीत ।।
— रेशमा त्रिपाठी