ग़ज़ल
कभी बैठकर कभी लेटकर चल कर रोये बाबू जी,
घर की छत पर बैठ अकेले जमकर रोये बाबू जी।
अपनों का व्यवहार बुढ़ापे में गैरों सा लगता है,
इसी बात को मन ही मन में कह कर रोये बाबू जी।
बहुत दिनों के बाद शहर से जब बेटा घर को आया,
उसे देख कर खुश हो करके हॅस कर रोये बाबू जी।
नाती-पोते बीबी-बच्चे जब-जब उनसे दूर हुये,
अश्कों के गहरे सागर में बहकर रोये बाबू जी।
जीवन भर की करम-कमाई जब उनकी बेकार हुई,
पछतावे की ज्वाला में तब दहकर रोये बाबू जी।
शक्तिहीन हो गये और जब अपनों ने ठुकराया तो,
पीड़ा और घुटन को तब-तब सहकर रोये बाबू जी।
हरदम हॅसते रहते थे वो किन्तु कभी जब रोये तो,
सबसे अपनी आँख बचाकर छुपकर रोये बाबू जी।
तन्हाई में ‘गुलशन’ की जब याद बहुत ही आयी तो,
याद-याद में रोते-रोते थक कर रोये बाबू जी।
— डा. अशोक ‘गुलशन’