ग़ज़ल
इश्क में तेरे कुछ ऐसे मर मिटा हूँ मैं
तू ही तू है मुझमें अब कहाँ बचा हूँ मैं
ऊगेंगे देख लेना कुछ दरख्त पानियों के
तेरी गली में अश्क थोड़े बो चला हूँ मैं
तमन्ना तुझसे मिलने की दिल में लिए हुए
आग में तन्हाई की बरसों जला हूँ मैं
दीवाने तेरे और भी तो होंगे बहुत से
पर आज़मा के देख ले सबसे जुदा हूँ मैं
होगी कभी तो नज़र-ए-करम आपकी इधर
इस आस में मर-मर के रोज़ जी रहा हूँ मैं
— भरत मल्होत्रा