मार्गदर्शन
”माना कि समय रहते मैं इजहार नहीं कर पाया, इसका मतलब यह नहीं है, कि मुझे प्यार ही नहीं था ।” उसके मन में मंथन चल रहा था.
”लो बोलो, खुद ही मान रहे हो कि समय रहते तुम इजहार नहीं कर पाए और खुद को दोषी भी नहीं मान रहे हो ! सही समय ही तो सब कुछ है। प्रोफेसर रहते हुए तुमने यही पढ़ाया था न अपने विद्यार्थियों को!” मन के एक कोने से आवाज आई ।
”पढ़ाने और करने में बहुत अंतर होता है, समझा करो । ” दूसरे कोने ने कहा ।
”समझना तुम्हें होगा, कि यही दोगलापन तुम्हारे प्यार का कातिल बन गया!” एक और कोने ने धिक्कार लगाई ।
”अब मैं क्या करूं? मेरा मार्गदर्शन करो । ”
”मार्गदर्शन तुम्हें अपनी अनुभूति और संवेदना से मिल सकेगा । ”
”अपने प्यार की सलामती की दुआ करना ही बेहतर रहेगा । ” उसे मार्गदर्शन मिला।
मार्गदर्शन के लिए मन से बड़ा और कोई पथप्रदर्शक नहीं होता. प्यार हो, तो समय रहते प्यार का इजहार करना भी जरूरी होता है, अन्यथा जीवन भर पछतावा ही रहता है. फिर मन के सुकून के लिए मार्गदर्शन की दरकार होती है. मन ही मार्गदर्शन कर प्यार की सलामती की दुआ करने का मार्ग दर्शित करता है.