ग़ज़ल
तेरी जफ़ाओं से मुझे कोई गिला नहीं
चाहा मैंने जो भी वो अक्सर मिला नहीं
मुश्किल है राह फिर भी पा ही लूँगा मैं
मंज़िल कमर खमीदा है मेरी हौसला नहीं
रस्ता मेरे घर का बहार भूल चुकी है
मुद्दत से इस वीराने में कोई गुल खिला नहीं
हर आँख नम सी है यहाँ हर सीना है ज़ख़्मी
है कौन गम-ए-दौरां में जो मुब्तिला नहीं
बैठा है मेरे पास, तेरा दिल है कहीं और
कैसे कह दूँ तुझमें-मुझमें फासला नहीं
— भरत मल्होत्रा