सरहद का साँवरा
प्रिया से फोन पर बातें करते हुए शौर्य बीच-बीच में कुछ पल के लिए बिल्कुल खामोश हो जाते थे ।
प्रिया से नहीं रहा गया वह पूछ बैठी; “क्या बात है शौर्य, लगता है आप परेशान हैं ?
“अरे ! नहीं नहीं , मैं परेशान भी हूँ तो तुम्हारी वज़ह से एवं माँ पिताजी की वज़ह से ।”
“हूँऊँ…इसका मतलब है हम सब आपकी परेशानी का कारण हैं ? साफ-साफ कहिये ना कि घर की याद आ रही है ।”
“हाँ ऐसा भी कह सकती हो ; पर बातचीत में तुम माँदर एवं ढोल मजीरे की थाप पर फागोत्सव में गाने वाले गानों पर शायद ध्यान नहीं दी हो ?”
“गौर से सुनो , वे सभी क्या गा रहे हैं ? होलियाँ में उड़े रेएए..गुलाल कहियो रेएए….मंजीरे पे.।। अमुआ की डारी मंजरी भरी गेल पिया के देखला बरस भर भेल ।कैसे काटव फगुआ बिनू सनेह रे ….आमक डारी मंजरी भरी गेल रे….।”
“क्या ? इसका मतलब मैं इतनी देर से बक बक किये जा रही हूँ और आप मुझे नहीं बल्कि दूर से भी, कहीं गीत के बोल सुन रहे हैं !!”
“नाराज मत हो प्रिया; मैं अगर माँ भारती का सपूत हूँ तो तेरा पति एवं माँ-बाबूजी का पुत्र भी हूँ ।” तानों उलाहनों में व्यर्थ वक्त जाया मत करो ; मेरा प्यार महसूस करना चाहती हो तो अपनी आँखें बंद करो , मैं आकर तुझे गुलाल लगाऊँगा ।”
“हाहाआहा…..मज़ाक बढिया कर लेते हैं , फिर भी मैं आँखें बंद कर लेती हूँ , वैसे भी कल होली है । बीसियों तरह के काम करने होंगें ।
वरना गाँव की पड़ोसिन कहेंगी ; “इस छोरी को मोबाइल से फुर्सत मिले तो ना त्योहार मनावे ,शुभरात्रि ।”
“हाहाहा….अब शुभ प्रभात बोलो प्रिया …ओके सीयू .… कहने से पहले फोन काट दिया।
अधखुली पलकों पर दबाव महसूस हुआ , मुस्कूरा उठी , पगली हो गई मैं दिन रात सोते जाते शौर्य के सपने देखने लगी हूँ ।”
“हैप्पी होली ; बुरा ना मानों होली है ।”
जब तक कुछ समझती बाहों में होने के अहसास से चौंक गई !
छपाक….छपाक…आँखें खूली हे भगवान यह तो बैलों का नाद है ।
माँ बाबूजी भी शौर्य की शरारत में शरीक थे । गीत के बोल से वह छुईमुई सी अपने अधोवस्त्र को हाथों से ढ़कने लगी ।
होलिया में उड़े रेएएए…गुलाल गीत पर शौर्य ठुमके लगा रहे थे । सही मायनों में सरहद का सपूत…पुत्र की भुमिका भी बखूबी निभा रहे थे।
— आरती रॉय