गजल
आज गुलाब को गुलाब बेचते देखा मैंने,
खुली सड़कों पर ख्वाब बेचते देखा मैंने।
नन्हीं आँखों में लिए हुए छोटी सी हसरत,
उसे जिंदगी की किताब बेचते देखा मैंने।
पंखुड़ियों से नाजुक हाथों में थामे गुलाब,
दो रोटी के लिए बेहिसाब बेचते देखा मैंने।
गरीबी की मार ने मुरझाया दिया था चेहरा,
कांपती जुबान से जवाब बेचते देखा मैंने।
कर रहे थे मोलभाव लोग उसके साथ भी,
गरीब दिल का खिताब बेचते देखा मैंने।
“सुलक्षणा” इंसानियत को मारकर सरेआम,
रईसों को आब-ओ-ताब बेचते देखा मैंने।
— डॉ सुलक्षणा