नाव…
रोज़ बीनती थी…
कुछ लकड़ियाँ
रोज़ ही तो…
देखते ही देखते
एक ढेर खड़ा था
आँगन में।
आश्वस्त था मन
अंतिम समय के लिए
चिता की सामग्री
भरपूर थी।
पर एक रोज़ अचानक….
जी को न जाने क्या सूझी
हाथों को इशारा हुआ
और एक नाव बना डाली
लकड़ियों की।
फिर तो
किनारे से बीच समन्दर
इस पार से उस पार
आसमानी बातें
निःशब्द राते
खामोश आहटें
पानी की करवटें
हवा सा चलना
खुद से मिलना
कितना कुछ था
जो बाकी था।
अब फिक्र ही नहीं रही
अंतिम समय की…
क्योंकि आजकल मैं
जीने में व्यस्त हूँ।