लघुकथा – दरार
हेमा अपने पति के साथ लेटी नींद न आने के कारण दीवार की दरार को देख रही थी| ये दरार सिमिंट पर पड़ी थी जो कभी भर नहीं सकती थी| हेमा पति को बोली, “एक वर्ष हो गया हमारे विवाह को| आपने विदेश जाने के लिये अभी तक अपने कागज-पत्र ही नहीं बनवाये|” पति-पत्नी और परिवार में रोज़ इस बात को लेकर कहा सुनी होती| कभी कभी हेमा की सास बोलती, “बेटी, खुश रहा करो| अब तो तुम हमारे साथ भी लड़ते रहते हो| बाहर होगे तो हमें चिंता ही रहेगी|” सास हेमा की पसंद का खाना बनाती और उसे खूब प्यार करती| हेमा जब माँ को बताती, “सास बहुत चलाक है, मीठे बनकर चाल खेलती है|” जब हेमा ने खाना–पीना छोड़ झगड़े खूब बढा दिये तो पति बोला, “हमने विदेश नहीं जाना| यहाँ अच्छी नौकरी, भरा पूरा परिवार है बाहर जाकर क्या करना है| अगर तुम अलग घर में रहना चाहती हो वो भी सम्भव हो सकता है|” ये सुन हेमा नाराज़ हो मैके चली गई| वीजा लगवा लिया, ससुराल वालों ने बहुत मिन्नतें की पर हेमा पर कोई असर नहीं हुआ| दोनों परिवारों में दूरी बढ़ गई और ख़ामोशी छा गई| हेमा अपने माँ-बाप को दुखी देखती| एक दिन हेमा ने भाभी को बात करते सुना, “अमीर लड़का है और चालीस का है| उसके साथ विवाह हो जायेगा और छोटा देवर भी नौकरी लग जायेगा|” ये सब बातें सुन हेमा निराश सी रोती हुई छत पर जा बैठी और पति को फोन किया, “आप सब ने मुझे बेगाना समझ भुला दिया| मैं आपकी अर्धांगनी हूँ कैसे भूल सकते हो| मैं भाभी की बातों में आ गयी थी, मुझे आके ले जाओ|”
रेखा मोहन