व्यंग्य – हर्रा लगे न फ़िटकरी!
नकली सोना असली सोने से कुछ ज़्यादा ही चमक का स्वामी होता है।लेकिन जब नकली से असली पीछे छूटने लगे तो असली का क्या काम रह जाता है ? जो उपलब्धि असली से भी नहीं पाई जा सकी और नकली ने वह हासिल करा दी , तो कौन भला हज़ारों गुना कीमती असली को अपने गले का हार बनाएगा।
आदमी एक ऐसा जीव है ,जो ‘शॉर्टकट’ प्रेमी है। उसे लम्बा और अधिक समय में पूरा होने वाला काम पसंद नहीं आता।बेचारे के पास इतना समय ही नहीं है कि किसी अच्छी उपलब्धि के लिए अपने को संलग्न कर सके। सब कुछ उसे जल्दी चाहिए। वह तो नौ महीने से पहले माता के गर्भ से बाहर आना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है , अन्यथा समय से पहले ही कूद पड़ता ! पर क्या करे बेचारा ! ऐसा करने की उसकी सामर्थ्य ही नहीं है। वह समय को पीछे छोड़ देना चाहता है।इसीलिए वह ऐसे उलटे उपक्रम करता रहता है कि उसकी ‘सुबुद्धि ‘की दाद देनी पड़ती है। पर वह दाद कभी न कभी इतनी महँगी अवश्य ही पड़ती है कि खुजाते – खुजाते अंदर का खून बाहर ही झलकने लगता है।
यों तो मानव के बृहद जीवन के अनेक आयाम हैं। हमारे यहाँ आदमी की देह को आदमी बनाने का काम शायद शिक्षा ही करती है। वह शिक्षा हमें माँ से मिलना प्रारम्भ हो जाती है। इसीलिए उसे हमारी प्रथम गुरु की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। यह सर्वांश में सच भी है। सच ही है। लेकिन जब वह आगे बढ़ने के लिए पगडंडियाँ तलाशने लगता है तो अजीब – सा ही लगता है। वह असली को धता बताकर नकली को असली सिद्ध करने में लग जाता है। विश्वविद्यालय की नकली डिग्रियाँ बनवाकर जब नौकरी मिल सकती है। तो कौन भकुआ कालेज में पढ़ने जाएगा औऱ अपना समय खराब करेगा । इसलिए नकली सोने कोअसली बताकर बेचने वाले ही उसे सच्चा मार्ग दर्शन कर पाते हैं।
आज ज्ञान की जरूरत नहीं है। बिना पढ़े शिक्षक , डाक्टर , इंजीनियर होना कोई बड़ी बात नहीं समझी जाती। बस एक बार नौकरी या पद मिल जाये फिर कौन देखता है, असली या नकली। कुछ विश्वविद्यालयों की नकली डिग्री बनवाकर गुरुजी बने हुए अपनी पूजा करवा रहे हैं। उन्हें पढ़ाना ही नहीं है , तो पढ़ना क्यों ? अधिकरियों की चापलूसी औऱ नेतागिरी के बल पर मूँछें तानकर नौकरी कर रहे हैं और हर महीने मोटी पगार लाकर बैंक की तिजोरी भारी कर रहे हैं।लेकिन ऊँट कभी न कभी पहाड़ के नीचे आता ही है। जाँच हुई और दूध का दूध पानी का पानी हो गया। अब कहीं सींखचों के पीछे बैठकर कारागार की रोटी खाने का डर सता रहा है। नकली सोना नकली साबित हो ही गया। नकली की चमक कब तक ? कि पानी उतरने तक। अब तो इज्जत का पानी , आँखों का पानी , उतर ही गया। सब नकली की मेहरबानी।’शार्ट कट’ की निशानी। नकली अंकपत्र , नकली डिग्री । पढ़ने-लिखने में नानी मरती । जब देश का आदमी इतना पतित हो जाएगा , तो उसे अपना देश क्या ! अपना घर ,परिवार भी बचाना मुश्किल होगा।
विश्वविद्यालय सो रहा है। उनका काम कोई औऱ ही हल्का कर दे रहा है। उसे क्या ? बिना परीक्षा , बिना पढ़ाई , डिग्री बंट रही हैं। जब पड़ा छापा , तो याद आये बापा। यहाँ से वहाँ नापा। पर चोर डाल गया डाका। यूनिवर्सिटी पर ‘सुपर यूनिवर्सिटी’ जो खुल गई हैं। जो अदृश्य हैं। करोड़ों , अरबों , खरबों का शुल्क , फिर फार्म , परीक्षा , रिजल्ट , डिग्री -तमाम झमेले। सीधे – सीधे इधर थमाया नामा, उधर आपके नाम डिग्री का बैनामा। नौकरी प्लेट में नियुक्ति पत्र को सजाकर तैयार जो बैठी है।आओ और पाओ। बच्चे बीबी संग मौज मनाओ। पूज्य पापा जी को खुश कराओ। क्योंकि उनके ही पुण्यप्रताप से ही तो फ़र्जी डिग्री औऱ उस पर असली नौकरी , शादी के बाद छोकरी की सहज प्राप्ति संभव हो सकी। ऐसे सभी पूजनीय माता -पिता धन्य हैं जो फ़र्ज़ी डिग्री से प्राप्त नौकरी के सुख लाभ का उपभोग कर रहे हैं । उधर बेचारे ईमानदार, पढ़ाई करने वाले दर-दर की ठोकरें खाते हुए भटक रहे हैं। टेस्ट , इंटरव्यू औऱ तमाम चक्रव्यूहों में निकलने के लिए रात -दिन एक कर रहे हैं। फिर भी सफलता उनसे कोसों दूर है। क्योंकि कमीशन में भी कमीशन के बिना अंतिम व्यूह पार कर पाना इतना सहज नहीं है।
निकम्मे गुलछर्रे उड़ाएं, मेहनतकश पीछे जाएँ। यही नारा है। बिना हर्रा फिटकरी के जब रंग चोखा आए तो कोई क्यों पढ़ने जाए?, कालेज स्कूल के भवन खड़े – खड़े तरसाये कि कोई बालक -बालिका अपने दर्शन कराए। कॉलेज धन्य हो जाये। छात्रों की चरण रज अपनी बिल्डिंग से लगाये। वास्तव में मेरा देश इसीलिए महान है। कामचोरी , बेईमानी, पगडण्डीबाजी इसकी शान हैं। सब बाईस पंसेरी यहाँ धान हैं। चोरों के यहाँ बहुतेरे कद्रदान हैं। ऐसे ही नेताओं का यहाँ सम्मान है। खुदा मेहरबान औऱ गधा पहलवान है। तभी तो मेरा देश महान है। मेरा देश महान है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’