ग़ज़ल
अपनी ग़लती का यहाँ आभास है किसको!
फूल खिलता ही नहीं सुवास है किसको !!
डालना अंगुलियाँ किसी के छिद्रों में,
अपने छिद्रों का दर्द रास है किसको!
अपनी नज़रों के तले अंधे हम हैं,
दिख नहीं पाता है उजास भी किसको!
नज़ारे करती है नज़र दुनिया के,
अँधेरा दिखता है कभी पास भी किसको!
घर का जोगी भी जोगना होता यहाँ,
उसके ‘शुभम’ जज़्बात का कयास भी किसको!!
— डॉ.भगवत स्वरूप ‘शुभम’