कहानी – जीना ही पडेगा
ज़िन्दगी गुजर ही जाती है पर अभी रश्मि को समझ नहीं आ रहा था कि जीवन का ये अंधेरा कैसे कटेगा?…कैसी सुबह -शाम होगी? सब कुछ अचानक ही घटित हुआ था। कभी उसने सपने मे भी नहीं सोचा था कि सुमित उसे बीच मझधार दो मासूम बच्चियों के साथ छोड़कर दुनिया से चला जायेगा। अभी कल की ही तो बात लगती है जब सुमित की दुल्हन बन कर रश्मि इस घर में आई थी .. आज सुमित के बिना पूरा घर जैसे पराया पराया लग रहा था।
रश्मि का विवाह माता पिता की मर्जी से हुआ था। पिता जी किसी समारोह में सुमित और उसके परिवार वालों से मिले और सुमित पिता जी को इतना भा गया कि एक महीने के भीतर रश्मि का पाणिग्रहण कर दिया। सुमित एक अमेरिकन कम्पनी मे इंजिनियर था। सुमित के परिवार वाले एक गांव में रहते थे। शादी के करीब सवा महीने बाद रश्मि सुमित के साथ शहर आ गई थी । अब वो दोनों थे और उनके नये जीवन के हसीन सपने। प्यार, तकरार और मुनहार में जिंदगी सतरंगी सपनों की तरह लगने लगी .. और चार सालों में उनके घर के आंगन में दो प्यारी प्यारी बच्चियां खेलने लगी थी जिया और निया। रश्मि के मन में कभी कभी एक बेटे की ख्वाहिश होती पर सुमित ये बोलकर चुप करा देता कि बेटे बेटी में कोई फर्क नहीं होता, अब यही हमारी दो आंखें है। सुमित की जान दोनों बेटियों मेंं बसती थी।
हंसते-खेलते दिन निकल रहे थे कि कम्पनी के एक इम्पार्टेंट प्रोजेक्ट पर सुमित को आठ महीने के लिए सिडनी जाना पड़ा। इस प्रोजेक्ट की सफलता पर उसको प्रमोशन मिलना था। रश्मि और बच्चियां उसके जाने के नाम पर दुखी हो गई पर अच्छे भविष्य के लिए कुछ दिन की दूरी सबने मंजूर कर ली। सुमित का रोज शाम को फोन आता था और वह घंटे भर विडिओ कॉल पर बच्चियों के साथ खेलता और रश्मि से जल्दी लौट आने का वादा करता।
उस दिन रात गहराने लगी थी और सुमित का कोई फोन या मैसेज नहीं आया। उसने भी इधर से सम्पर्क करने की कोशिश की पर कोई उत्तर नहीं मिल रहा था। इंतजार करते करते बच्चियाँ सो गई थी। अजीब सी आशंका से बार -बार मन घबराता और फिर वह ध्यान हटाकर मन ही मन बोलती कि मीटिंग मेंं फंस गया होगा और फिर उसका दिमाग बोलता कि” ऐसा था तो मैसेज ही कर देता ..जानता तो था कि हम सब इंतजार कर रहे होंगे ..आने दो फोन बताती हूँ। ”
दुसरे दिन की भी रात बीतने लगी। अब तो रश्मि मायूस होने लगी… बार बार बच्चों के सवालों का जवाब देते देते उसकी आँखे भर जा रही थी । जब भी मोबाइल की घंटी सुनाई देती उसे लगता कि सुमित का ही फोन है पर सुमित की कोई खबर नहीं थी ।
चौथे दिन की दोपहर में उसके मोबाइल पर किसी इंटरनेशनल नंबर से कॉल आई .. ” कैन आई टॉक टू मिसेज सुमित”। उधर से आवाज आई ।
“या या स्पिकिंग… प्लीज टेल मी .. व्हेयर इज सुमित.?” हाय, हेलो की फारमेलिटी भूल हडबडा कर उसने कहा, अंजाने भय से रश्मि का कलेजा मुंह को आ रहा था।
“मैं उनका कुलीग राजेश अवस्थी बोल रहा हूँ। सुमित की तबियत ठीक नहींं है, अभी वह हास्पिटल में है परसों के फ्लाइट से उसे इंडिया भेजा जा रहा है।”
“ऐसा कब से ?? उससे तो रोज बात होती थी .. उसने एक बार भी नहीं बोला कि इतनी तबीयत खराब है? अभी कैसा है वह ? क्या मै उससे बात कर सकती हूँ?”
“जी .. अभी सुमित पहले से बेहतर है .. आपके सवालों के डर से बात नहींं कर रहा है.. परसों आमने सामने ही बात कर लेना ..” थोड़ी सी हसीं के साथ फोन डिस्कनेक्ट हो गया।
एयर पोर्ट पर सुमित का पीला चेहरा .. बढ़ी हुई दाढ़ी और कमजोर चाल देखकर रश्मि आवाक रह गई .. “सुमित को ये क्या हो गया है ?”
रश्मि को देखकर सुमित थोड़ा मुस्कराया और एक हाथ से रश्मि को गले लगा लिया। ” जिया ,निया नहीं आईं?” उसने रश्मि से पुछा ।
“नहीं, राधा के साथ घर पर हैं.. दोनों को एक साथ संभालना मुश्किल है.. बहुत शैतान हो गई हैं। तुम्हें क्या हो गया है? रश्मि लगभग रोते हुए बोली ।
” थोड़ी सी तबीयत खराब है डियर…अब तुम सबके साथ रहूँगा तो जल्दी भला चंगा हो जाउंगा।” रश्मि का माथा चुमते हुए सुमित ने कहा।
घर जाते ही जिया और निया सुमित से लिपट गई। सुमित भी थोड़ा बेहतर महसूस करने लगा था । रश्मि ने सुकून की सांस ली । पर ये राहत ज्यादे देर की नहीं थी। सुमित की तबीयत अब दिन पर दिन बिगडने लगी थी । शहर के हर अस्पताल में चक्कर लगने लगे पर कोई सुधार नहीं दिख रहा था। डाक्टरों से पुछती तो बोलते इलाज चल रहा है.. ठीक हो जायेंगे। पर रश्मि को तसल्ली नहीं मिलती ।
एक रात रश्मि को अभी झपकी आई ही थी कि अपने सिर पर उसनें किसी का हाथ महसूस हुआ वह चौंक कर उठ बैठी। “सुमित .. क्या हुआ .. कुछ चाहिए ? तबीयत तो ठीक है ? ”
” रश्मि , मैं तुम्हें कुछ बताना चाहता हूँ। प्लीज धर्य से सुनना ।” रश्मि के दोनों हाथों को अपने हाथ में लेकर सुमित ने कहा।
“हाँ, हाँ बोलो ना ?” रश्मि डरते डरते बोली।
” जान, मुझे ब्लड कैंसर है .. और मैं बहुत दिन तुम्हारा साथ नहीं दे पाऊंगा।”
“नह इइईईई!!!! सुमित मजाक मत करो । पागल हो आधी रात में ऐसी बातें.. ” रश्मि चीख पड़ी ।
सुमित ने हौले से उसे सीने से लगा लिया । ” मुझे माफ कर देना जान मैं अपनी कोई जिम्मेदारी नही निभा पाया। मुझे सिडनी में ही पता चल गया था…आज बड़ी हिम्मत बटोर कर ये बात कह रहा हूँ।” सुमित का गला रुंध गया ।
“नहीं, ऐसा नही हो सकता .. मैं कैसे रहूंगी तुम्हारे बिना और जिया , निया उनका क्या होगा ? हम भी मर जाएंगे सुमित , हमें तुम्हारे बिना ये दुनिया नहीं चाहिये।”
बिलख बिलख रश्मि रो रही थी। सुमित की आंखों से भी आंसुओं की धार चुपचाप बहे जा रहा था। फिर तो कैसे सुबह हुई… दोनों को अंदाजा नहीं हुआ।
“मम्मी । ” निया के उठने की आवाज पर दोनों की तंद्रा भंग हुई।
अगले दिन ही सुमित को हास्पिटल मे एडमिट कर दिया गया क्योंकि सांस लेने में उसको दिक्कत होने लगी थी.. और एक हप्ते मेंं सुमित ने हमेशा के लिए अपनी तकलीफों से मुक्ति पा ली।
रश्मि तो जैसे सुन्न हो गई। मम्मी , पापा और रिश्तेदार सब बच्चियों का हवाला देते पर इतनी जल्दी कैसे सम्भल पाती । कुछ दिन तक सब संभालते रहे , संभालने की कोशिश करते रहे लेकिन कब तक? सबकी अपनी अपनी मजबूरियां थी। रश्मि ने भी किसी से कुछ नहीं बोला .. आखिर जो सब कुछ था वही साथ नहीं दे पाया तो किस तरह किसी और से कुछ उम्मीद करती ।
कहते हैं न कि जब ईश्वर दुख देता है तो दुख सहने की शक्ति और आगे बढने की हिम्मत देता है। अपने भीतर ही रश्मि को सारे सवालों , उलझनों के जवाब मिलने लगे । एक दिन पोस्ट आफिस से एक लेटर आया … कम्पनी से था। रश्मि को उसी कम्पनी से जॉब का आफर आया । भले लोग थे नहीं तो प्राइवेट कम्पनियों में ये सुविधा कहाँ होती है। एम.कॉम तक शिक्षा पायी थी उसने तो कम्पनी में अकाउंटेंट की जॉब मिल गई । मन ही मन थोड़ी ढाढस बंधी उसे.. पति की कमी तो कोई पुरी नहीं कर सकता पर कम से कम बच्चों की परवरिश के लिए तो मुहताज नहीं रहेगी।
“मम्मी , भुख लगी हैं।”
निया की आवाज़ पर सोचों की चारदीवारी से बार आई।
“हाँ बेटे, अभी खाना खिलाती हूँ।” निया को उसने गोद में उठा लिया ।
इन बच्चों के लिए तो जिंदगी जीना ही होगा … रश्मि ने गहरी सांस ली और आंखों मे आते आंसु गले में उतार .. छोटे छोटे निवाले नियाऔर जिया के मुंह मे खिलाने लगी।
— साधना सिंह