अधरों की रानी (कविता)
मैं बांसुरी हूं,
इस दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं,
एक वे जो ‘सुरी’ के पहले,
‘बे’ उपसर्ग लगाकर,
मुझे बेसुरी कहने से बाज़ नहीं आते हैं,
वे मुझे महज बांस की पौरी मात्र समझते हैं,
मुझमें पोल को देखते हैं और देखते हैं मेरे छेद,
वे मेरी सूरत ही देखते हैं पर, मुझे नहीं कोई खेद.
दूसरी तरह के लोग ‘सुरी’ के बाद,
‘ली’ प्रत्यय लगाते हैं,
उनके लिए मैं सुरीली होती हूं,
वे मेरी सूरत को नहीं सीरत को देखते हैं,
उनको मुझमें तीन गुण नज़र आते हैं.
पहला मुझमें कोई गांठ नहीं है,
जो देता है संकेत कि अपने अंदर,
किसी भी प्रकार की गांठ मत रखो,
मन में बदले की भावना मत रखो.
दूसरा बिना बजाये मैं बजती नहीं,
मानो संदेश दे रही हूं,
कि इज़्ज़त पाना चाहो,
तो जब तक न कहा जाए,
तब तक मत बोलो.
तीसरा जब भी बजती हूं,
मधुर ही बजती हूं ,
जिसका अर्थ हुआ,
कटु वचन बोलने से,
मौन रहना, अधिक बेहतर है,
इसलिए जब भी बोलो, मीठा ही बोलो.
जब ऐसे गुण, किसी में भगवान देखते हैं,
तो उसे उठाकर, अपने होंठों से लगा लेते हैं,
इसीलिए मैं, भगवान श्री कृष्ण को अति प्रिय हूं,
यों तो रुक्मिणी को, उनके महलों की रानी,
और राधा को, उनके मन की रानी कहा जाता है,
पर मैं उनके सरस-रसीले,
अधरों की रानी, बनी हुई हूं.
बांसुरी की बात भगवान श्री कृष्ण के प्रति हमारे अनुराग और भक्ति को जगा देती है. बांसुरी गये जमाने की बात नहीं है, बल्कि इस प्राचीन वाद्य यंत्र के जरिये ही और न जाने कितने सुरीले वाद्य यंत्रों का अविष्कार हुआ. सच में बांसुरी उन सब की जननी हे.. अगर बांसुरी न होती तो हम सभी विख्यात बांसुरी वादक श्री हरि प्रसाद चौरसिया जी से परिचित कैसे होते. हमारे लिये बांसुरी का सम्बंध केवल और केवल वासुदेव भगवान श्री कृष्ण से है और जन्म जन्मांतर रहेगा. और इस नाते बांसुरी का ऐतिहासिक महत्त्व भी है.