कविता

सोच की चारदीवारी

संकुचित सोच की चारदीवारी में कैद वे लोग,
जिनके मस्तिष्क को आजादी नहीं मिल पाई,
अपने ही बनाए रूढ़िवादी रीति-रिवाजों से।
ऐसे लोग प्रश्नचिन्ह लगाते हैं दूसरों की जीवन शैली पर,
छीन लेना चाहते हैं उनका रूप, उनकी हंसी,
उनके निर्णय और उनकी स्वतंत्रता को।

सोच की चारदीवारी के भीतर,
छटपटा कर रह जाती हैं कुछ आकृतियां!
दम तोड़ देती हैं जाने कितनी आशाएं ,इच्छाएं,
घबराती हैं खुले माहौल में जाने से,
सहम जाती हैं चंद आवाजों के शोर से,
आंसुओं में बहकर रह जाती हैं कुछ सिसकियां।

जाने कब धराशाई होगी यह चारदीवारी
सांस ले सकेंगे लोग खुली हवा में।
कब खुल पाएंगी दिमागी बेड़ियां?
आजाद हो पाएगी उनकी सोच।
आखिर कब ??

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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