खुशबुओं की तरह हम बिखर जाएंगे,
इक न इक दिन जहाँ से भी तर जाएंगे ।।
तुम सँभलना बहुत ही कठिन है डगर
जिस्म से जाँ तक ,… घाव भर जाएंगे ।।
बात रोटी मकाँ और मकीं तक नहीं
नाम भी कुछ रहे ,….ऐसा कर जाएंगे ।।
जिंदगी जो मिली है ,…सलामत रहे
क्या भरोसा कहाँ कब कि मर जाएंगे।।
उसके लहजे़ में शामिल नहीं नर्मियाँ
रूह तक आपकी देखो ज़र जाएंगे ।।
पासबाँ हैं ,….वो कहते हमेशा मगर
रेत के घर में ,……कैसे ठहर जाएंगे ।।
— सीमा शर्मा ‘सरोज’