ग़ज़ल
लकीरें हाथ की सारी मिटा दो
आगाही की किताबें सब जला दो
चाहें तो नहीं कुछ भी नामुमकिन
चलो उठो ये दुनिया को दिखा दो
बीमार-ए-इश्क़ हूँ मुझको कोई भी
दवा न रास आए बस दुआ दो
ताब सह पाएगा न मोम का दिल
रुख-ए-रोशन को पर्दे में छुपा दो
राख कर देंगे ये सारे शहर को
न नफरत के शोलों को हवा दो
नहीं उठ सकता सारी ज़िंदगी वो
जिसे इक बार नज़रों से गिरा दो
— भरत मल्होत्रा