ये कैसी प्यास
हर रोज इक प्यास है । होठ अक्सर शुष्क रहते हैं , कोल्डड्रिंक्स एवं स्नैक्स से फ्रिज भरा हुआ है , फिर भी मन बेचैन है क्यों ?
यह सवाल अक्सर उसे अतीत के द्वार खौलने पर विवश कर देता है ।
क्यों दिल के हाथों मजबूर हो जाता हूँ ?
कल ही तो ढ़ेर सारे भारतीय व्यंजन का आनंद मित्रों के साथ लिया हूँ ।
व्यंजन ! हाहाहा…रह गये ना दिल से बच्चे ।
पापड़ी चाट भेलपूरी बटाटा बड़ा ….इलाईची वाली चाय ….अहा आनंद आ गया था कल सच में ।
परम तृप्ति का अहसास लेकर घर लौटा था। ।
परमतृप्त ?
नहीं नहीं कुछ और की तृष्णा अभी भी बरकरार है ।
सोचते सोचते अनमनस्क होकर कॉफी बनाई । हूँऊ… मजा नहीं आया, काश अभी मलाईदार लस्सी मिल जाये तो मूवी देखने में आंनद आ जाये। अपनी सोच पर वह स्वयं हँस पड़ा । हिन्दी सिनेमा को अब मैं भी मूवी कहने लगा । हाय री सभ्यता ? तुम धीरे धीरे हमारी मातृभाषा को लीलते जा रहे हो ! पुनः होठों पर मुस्कूराहट तैर गई ।
अच्छा है ना ; हर रंग में ढ़ल जाता हूँ , चाहे वह स्वदेशी संस्कृति हो या पाश्चात्य सँस्कृति ! कहाँ ? आज भी नज़रें भारतीत रेस्तरां ढूँढ़ती है ,देशी व्यंजन हमें लूभाते हैं , क्यों ?
कॉफी ठंढ़ी हो चुकी थी , पर उसे होश कहाँ था । स्वयं अपने आप में उलझा ही रहता ,अचानक मोबाइल पर इंडिया का न. देख कर चौंक उठा ? अब तो भारत में अपना कहने वाला कोई नहीं है ? फिर यह किसका कॉल है ? झटपट फोन उठाया ; “हेलो”
“अबे हेलो के बच्चे जल्दी से हिलो फटाफट इंडिया आजा , साथ मिलकर पहले वैष्णो देवी फिर हिमाचल चलते हैं ।”
असीम आनंद पलकें झपकाना तक भूल गया । अपना त्योहार एवं अपनोंं के बीच कुछ दिन बिताने के अहसास मात्र से ही जीवनज्योति जगमगा उठी।
आरती रॉय .दरभंगा. बिहार।