आखिरी मंजिल
आँखों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था आँखों में मोतियाबिंद उतर आया था ।वे टटोलते हुए अपनी दवा टेबुल पर ढूँढ़ रहे थे। अचानक हाथ में तस्वीर आ गई ।आँखें भले ही धूँधली थीं मगर यादें आज भी तरोताजा बिल्कुल ओस की बूँदों के माफिक अपनी पत्नी रचना की तस्वीर मुन्ने के साथ उन्होंने ही तो खींची थी । मुन्ने को जब पहली बार “माँ” लिखना सिखाये थे तो रचना अभिभूत हो उन पलों को कैमरे में कैद कर ली थी। एक-एक कर सारी तस्वीरों से यादें जीवंंत हो उठी।
मुन्ना जब ड्राइंग क्लास जाने लगा तो उसने एक ऐसी तस्वीर बनाई जिसमें बचपन सीढियों से चढ़ता हुआ प्रौढावस्था पर आकर ठहर गया था। किशोरावस्था को पार करते-करते मुन्ने को साहित्य से लगाव हो गया ।
शिक्षा उसके लिये सुकून लेकर आया वहीं दूसरी ओर विधूर पिता का एकाकीपन बढ़ता चला गया।
दो बुंद आँसू लुढ़क कर गालों पर आ गये। वह वर्षों बाद आईने में खूद को देख रहे थे।
आज वह खुल कर रोना चाहते थे। आँसूओं को बह जाने दूँ इसी में मुन्ने की भलाई है। वह रचना की मुन्ने के साथ वाली तस्वीर उठा कर बातें करने लगे ।
“देखो रचना तेरे जाने के बाद मैं माता-पिता दोनों का फर्ज निभाया है,मेरे चेहरे की अनगिनत लकीरें गवाह हैं ।”
“उन सारी विपत्तियों की , जब तेरी याद में माँ बनने की असफल कोशिश करते हुए मैं हार जाता था। एक बार तो कह दो क्या मैं एक अच्छा पिता बन पाया या नहीं ?”
खुद पर हँसी आ गई , उम्र और मुन्ना दोनों, लाख पकड़ने की कोशिश के बावजूद दूर होते जा रहे थे ! उन्होंने दवा निकाल कर पी ली ।
अररे यह क्या हो रहा है !!ऐसा लग रहा है मानों अंग शिथिल पड़ गये हैं ,उठने की कोशिश कर रहा हूँ पर शायद गहरी निद्रा में जा रहा हूँ ।
मुन्ना तुझे फुर्सत नहीं मिली मोतियाबिंद बढ़ता गया,काश तुम समय पर आकर मेरी आँखों में अपना अक्स ढूँढ़ पाते ,अलविदा मेरे मुन्ने… मोबाइल पर अँगुलियाँ लगातार दबाव बनाते हुए शिथिल पर गई ।
आखिरी मंजिल पल पल करीब आती जा रही थी , परंतु ऐसा लग रहा था मानों वो उल्टे कदम लौटते हुए अपनी रचना की सुहाग सेज की ओर बढ़ते जा रहे हों ।
— आरती राय