रात भर
तारों के नीचे बैठीं ,सपने सजाती रात भर ।
ओंस की आगोश में, मदहोश रही रात भर ।।
ढूंढ़ती हूॅ॑ खुद को ,खुद की आवाज में ।
आॅ॑खों में सुरमई, ख्वाब लिए रात भर ।।
जिस्म की लम्स में, शव सी पड़ी ।
कोई तो मखमली सी, आवाज दें ।।
सन्नाटें के शोर में,हवाओं ने छेड़ा रातभर ।
कोई तो जगाएं इन, सपनों को राग से ।।”
— रेशमा त्रिपाठी