महाभारतान्तर्गत चक्रवर्ती आर्य राजाओं का परिचय
आर्यजगत् के पुनरुद्धारक स्वामी दयानन्दजी सरस्वती अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के एकादश समुल्लास में चक्रवर्ती राजाओं के विषय में मैत्र्युपनिषद् का प्रमाण उद्धृत करते हुए लिखते हैं- “सृष्टि से लेकर महाभारतपर्यन्त चक्रवर्ती सार्वभौम राजा आर्यकुल में ही हुए थे। अब इनके सन्त्तानों का अभाग्योदय होने से राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहे हैं। जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्र्यश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, ननक्तु, शर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत्त और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं वैसे स्वायम्भुवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति, महाभारतादि ग्रन्थों में लिखे हैं। इस को मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।” इन राजाओं का राज्य आर्यावर्त्त देश से लेकर समस्त भूमण्डल पर था। आर्यावर्त्त देश विद्या का आदिस्त्रोत होने हेतु आदिसभ्यता का प्रकाशक भी है। पश्चिमी विद्वानों में अत्यन्त प्रतिष्ठित मातृलिंग (Maeterlinck) अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘Secret Heart’ में लिखते हैं-
“It is now hardly to be contested that the source (of knowledge) is to be found in India. Thence in all probability the sacred teaching spread in to Egypt, found its way to ancient Persia and Chaldia, permitted the Hebrew race and crept in Greece and the south of Europe, finally reaching China and even America.” -Pg. 5
अर्थात्- अब इसपर विवाद की कोई गुंजायश नहीं कि (विद्या का) मूल स्थान भारतवर्ष में पाया जाता है। सम्भवतः वहां से यह शिक्षा मिश्र में फैली, मिश्र से प्राचीन ईरान तथा कालडिया (अरब देश) का मार्ग पकड़ा, यहूदी जाति को प्रभावित किया, फिर यूनान तथा यूरोप के दक्षिण भाग में प्रविष्ट हुई, अन्त में चीन और अमरीका में पहुंची।
फ्रांस के महान् सन्त एवं विचारक क्रूज़े (Cruiser) ने बलपूर्वक लिखा है-
“Is there is a country which can rightly claim the honour of being the cradle of human race or at least the scene of primitive civilisation, the successive developments of which carried in all parts of the ancient world, and even beyond, the blessings of knowledge which is the second life of man, that country assuredly is India.” -J. beatie : Civilisation and Progress
अर्थात्- यदि कोई देश वास्तव में मनुष्य-जाति का पालक होने अथवा उस आदिसभ्यता का, जिसने विकसित होकर संसार के कोने-कोने में ज्ञान का प्रसार किया, स्त्रोत होने का दावा कर सकता है, तो निश्चय ही वह देश भारत है।
इसी आर्यावर्त्त का नाम ही ब्रह्मावर्त्त, ब्रह्मर्षि देश से भी प्रसिद्ध है (देखो- मनु० २/१७-२२ एवं पातंजल-व्याकरण-महाभाष्य २/४/१० व ६/३/१०९)। वैदिक शिक्षा के प्रभाव से इस देश के राजाओं में किसी प्रकार का कोई दुराचार विद्यमान नहीं था इसलिए इनकी प्रजा इनसे अत्यन्त प्रसन्न व सन्तुष्ट रहती थी। हम अपने पक्ष में पाठकों के समक्ष महाभारत (अनुशासन पर्व, अध्याय १६५) में आए चक्रवर्ती राजाओं के कुछ नामों व उनकी राज्य-व्यवस्था का उल्लेख करेंगे-
१. महाराजा मरुत्त- राजा मरुत्त जब इस पृथिवि का शासन करते थे उस समय यह पृथिवी बिना जोते-बोए ही अन्न पैदा करती थी और समस्त भूमण्डल में देवालयों की माला-सी दृष्टिगोचर होती थी जिससे इस पृथिवी की बड़ी शोभा बनी हुई थी। (द्रोणपर्व ५५/४४)
२. महाराजा सुहोत्र- राजा सुहोत्र को पाकर पृथिवी का वसुमती नाम सार्थक हो गया था। जिस समय वे जनपद के स्वामी थे उन दिनों वहां की नदियां अपने जल के साथ सुवर्ण बहाया करती थीं। (द्रोणपर्व ५६/६)
३. महाराजा शिवि- औशीनर के सुपुत्र शिवि ने इस सम्पूर्ण पृथिवी को चमड़े की भांति लपेट लिया था, अर्थात् सर्वथा अपने आधीन कर लिया था। वह अपने रथ की ध्वनि से पृथिवी को प्रतिध्वनित करते हए एकमात्र विजयशील रथ के द्वारा इस भूमण्डल को एकछत्र शासन करते थे। आज संसार में जंगली पशुओं सहित जितने गाय, बैल, और घोड़े हैं उतनी संख्या में उशीनर-पुत्र शिवि ने अपने यज्ञ में केवल गौओं का दान किया था। प्रजापति ब्रह्मा ने इन्द्र के तुल्य पराक्रमी उशीनर-पुत्र राजा शिवि के सिवाय सम्पूर्ण राजाओं में भूत या भविष्यकाल के किसी राजा को ऐसा सम्मान नहीं दिया जो शिवि का कार्यभार वहन कर सकता हो। (द्रोणपर्व ५८/१,२,६,७,८)
४. सम्राट् भरत- दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र महाधनी, महामनस्वी, महातेजस्वी भरत ने पूर्व-काल में देवताओं की प्रसन्नता के लिए यमुना के तट पर तीन सौ, सरस्वती के तट पर बीस और गंगा के तट पर चौदह अश्वमेध यज्ञ किए थे। जैसे मनुष्य दोनों भुजाओं से आकाश को तैर नहीं सकते, उसी प्रकार सम्पूर्ण राजाओं में भरत का जो महान् कर्म है उसका दूसरे राजा अनुकरण न कर सके। (द्रोणपर्व ६८/८,९)
५. पुरुषोत्तम राम- श्रीराम अपनी प्रजा पर वैसी ही कृपा रखते थे जैसे पिता अपने औरस पुत्रों पर रखता है। उनके राज्य में कोई भी स्त्री अनाथ, विधवा नहीं हुई। श्रीराम ने जब तक राज्य का शासन किया तब तक वे अपनी प्रजा के लिए सदा ही कृपालु बने रहे। मेघ समय पर वर्षा करके खेती को अच्छे ढंग से सम्पन्न करता था; उसे बढ़ने-फलने-फूलने का अवसर देता था। राम के राज्य-शासनकाल में सदा सुकाल ही रहता था, कभी अकाल नहीं पड़ता था। राम के राज्य-शासन करते समय कभी कोई प्राणी जल में नहीं डूबता था, आग अनुचितरूप से कभी किसी को नहीं जलाती थी तथा किसी को रोग का भय नहीं होता था। स्त्रियों में भी परस्पर विवाद नहीं होता था, फिर पुरुषों की तो कथा ही क्या! श्रीराम के राज्य-शासनकाल में समस्त प्रजाएँ सम-धर्म में तत्पर रहती थीं। श्री रामचन्द्र जी जब राज्य करते थे उस समय सभी मनुष्य सन्तुष्ट, पूर्णकाम, निर्भय, स्वाधीन और सत्यव्रती थे। सभी वृक्ष बिना किसी विघ्न-बाधा के सदा फले-फूले रहते थे और समस्त गौएँ एक-एक द्रोण दूध देती थीं। महातपस्वी श्रीराम ने चौदह वर्षों तक वन में निवास करके राज्य पाने के उपरान्त दस ऐसे अश्वमेध यज्ञ किये जो सर्वथा स्तुति के योग्य थे तथा जहां किसी भी याचक के लिए दरवाजा बन्द नहीं होता था। श्री राम नवयुवक और श्याम-वर्णवाले थे। उनकी आंखों में कुछ-कुछ लालिमा शोभा देती थी। वे यूथपति गजराज के समान शक्तिशाली थे। उनकी बड़ी-बड़ी भुजाएं घुटनों तक लम्बी थीं। उनका मुख सुन्दर और कन्धे सिंह के समान थे। (द्रोणपर्व, अध्याय ५९)
६. महाराजा भगीरथ- महाराजा भगीरथ जिनके नाम पर गंगा को भागीरथी कहते हैं, तट के समीप निवास करते समय गंगाजी राजा भगीरथ के प्रताप से भारतवर्ष की ओर बहने लगी। विप्रपथगामिनी गंगा ने पुत्री-भाव को प्राप्त होकर पर्याप्त दक्षिणा देनेवाले इक्ष्वाकु-वंशी यजमान भगीरथ को अपना पिता माना। (द्रोणपर्व ६०/१,६,८)
७. महाराजा दिलीप- एकाग्रचित हुए महाराजा दिलीप ने एक महायज्ञ में रत्न और धन से परिपूर्ण पृथिवी के बहुत बड़े भाग को ब्राह्मणों को दान कर दिया था। उनके यज्ञ में सोने का बना हुआ यूप शोभा पाता था। यज्ञ करते हुए इन्द्र आदि देवता सदा उसी यूप का आश्रय लेकर रहते थे। उनके यज्ञ में साक्षात् विश्वावसु बीच में बैठकर सात-स्वरों के अनुसार वीणा बजाया करते थे। उस समय सभी प्राणी यही समझते थे कि ये मेरे ही आगे बाजा बजा रहे हैं। (द्रोणपर्व ६१/२,३,५,७)
८. महाराजा मान्धाता- इसी प्रसङ्ग में महाराजा मान्धाता का वर्णन इस प्रकार है कि वे बड़े धर्मात्मा और मनस्वी थे। युद्ध में इन्द्र के समान शौर्य प्रकट करते थे। यह सारी पृथिवी एक ही दिन में उनके अधिकार में आ गई थी। मान्धाता ने समराङ्गण में राजा अङ्गार, मरुत्त, असित, गय तथा अङ्गराज बृहद्रथ को भी पराजित कर दिया था। मान्धाता ने रणभूमि में जिस समय राजा अङ्गार के साथ युद्ध किया था, उस समय देवताओं ने ऐसा समझा था कि उनके धनुष की टंकार से सारा आकाश ही फट गया है। (द्रोणपर्व ६२/९,१०) उनके राज्य के विस्तार में कहा गया-
यत्र सूर्य उदेति स्म यत्र च प्रतितिष्ठति।
सर्वं तद् यौवनाश्वस्य मान्धातु: क्षेत्रमुच्यते।। (द्रोणपर्व ६२/११)
जहां से सूर्य उदय होते हैं वहां से लेकर जहां अस्त होते हैं वहां तक का सारा क्षेत्र युवनाश्व-पुत्र मान्धाता का ही राज्य कहलाता था।
९. महाराजा ययाति- नहुष-पुत्र राजा ययाति ने समुद्रों-सहित सारी पृथिवी को जीतकर शम्यापात के द्वारा पृथिवी को नाप-नापकर यज्ञ की वेदियां बनाई, जिनसे भूतल की विचित्र शोभा होने लगी। उन वेदियों पर मुख्य-मुख्य यज्ञों का अनुष्ठान करते हुए सारी भारत-भूमि का परिक्रमण कर डाला। नहुष-पुत्र ययाति ने व्यूह-रचनायुक्त आसुर-युद्ध के द्वारा दैत्यों एवं असुरों का संहार करके यह सारी पृथिवी अपने पुत्रों को बांट दी थी। (द्रोणपर्व, अध्याय६३)
१०. महाराजा अम्बरीष- नृपश्रेष्ठ महाराज अम्बरीष को सारी प्रजा ने अपना पुण्यमय रक्षक माना था। ब्राह्मणों के प्रति अनुराग रखनेवाले राजा अम्बरीष ने यज्ञ करते समय अपने विशाल यज्ञ-मण्डप में शतशः राजाओं को उन ब्राह्मणों की सेवा में नियुक्त किया था, जो स्वयं भी हजारों यज्ञ कर चुके थे। उन यज्ञ-कुशल ब्राह्मणों ने नाभाग-पुत्र अम्बरीष की सराहना करते हुए कहा था कि ऐसा यज्ञ न तो पहले के राजाओं ने किया और न ही भविष्य में होनेवाले करेंगे। (द्रोणपर्व ६४/१२,१५,१६)
११. महाराजा शशबिन्दु- इसी प्रकार चित्ररथ के पुत्र शशबिन्दु, अमूर्त्तरथा के पुत्र राजा गय और संकृति के पुत्र राजा रन्तिदेव थे। शशबिन्दु के राज्यकाल में यह पृथ्वी हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरी थी। यहां कोई विघ्न बाधा और रोग-व्याधि नहीं थी (द्रोणपर्व ६५/११)। राजा गय ने अश्वमेध नामक महायज्ञ में मणिमय रेत वाली सोने की पृथ्वी बनवाकर ब्राह्मणों को दान की थी (द्रोणपर्व ६६/११)। राजा रन्तिदेव ब्राह्मणों को ‘तुम्हारे लिए, तुम्हारे लिए’ कहकर हजारों सोने के चमकीले निष्क दान किया करते थे (द्रोणपर्व ६७/४,५)।
१२. महाराजा पृथु- वेन के पुत्र महाराज पृथु का भी महर्षियों ने महान् वन में एकत्र होकर उनका राज्याभिषेक किया था। ऋषियों ने यह सोचकर कि सब लोकों में धर्म की मर्यादा प्रथित करेंगे, स्थापित करेंगे, उनका नाम पृथु रखा था। क्षत अर्थात् दुःख से सबका त्राण करते थे इसलिए क्षत्रिय कहलाए। वेन-नन्दन पृथु को देखकर समस्त प्रजाओं ने एक-साथ कहा कि हम इनमें अनुरक्त हैं। इस प्रकार प्रजा का रञ्जन करने के कारण ही उनका नाम राजा हुआ। पृथु के शासनकाल में पृथिवी बिना जोते ही धान्य उत्पन्न करती थी। वृक्षों के पुट-पुट में मधु भरा था और सारी गौएँ एक-एक द्रोण दूध देती थीं। मनुष्य नीरोग थे, उनकी सारी कामनाएं सर्वथा परिपूर्ण थीं, उन्हें कभी किसी से कोई भय न था। सब लोग इच्छानुसार घरों में या खेतों में रह लेते थे। जब वे समुद्र की ओर यात्रा करते थे उस समय उसका जल स्थिर हो जाता था, नदियों की बाढ़ समाप्त हो जाती थी, उनके रथ की ध्वजा कभी भग्न नहीं होती थी। (द्रोणपर्व ६९/२,३,४,६,७,८,९)
सन्दर्भ ग्रन्थ-सत्यार्थ भास्कर-स्वामी विद्यानन्द एवं महाभारत
— प्रियांशु सेठ