कहानी

र‍िहाई- विनोद आसुदानी की मूल अंग्रेजी कहानी का हिन्‍दी ल‍िप्‍यांतरण

“पूरे चौदह बरस बाद मैं वापस अपने गांव जा रहा हूं। इस बार की दीवाली सूनी रहेगी। न तो पटाखे जलेंगे , न ही मिठाई बंटेगी। किसी को पता भी तो नहीं कि मैं वापस लौट रहा हूं, जो कोई खुशियां मनाये। चौदह बरस एक लंबा अरसा होता है। मेरे घरवाले तो सब मुझे भुला बैठे होंगे। इतने बरसों में गांव से कोई खबर भी तो नहीं आई। पता नहीं मुझे ढूंढने की कोशिश भी की होगी या नहीं।”

उसने विज्ञान में डिग्री हसिल की थी और एक अच्छी नौकरी की तलाश में था। वो कई बार नौकरी की तलाश में शहर जा चुका था। कई लोगों से उसकी अच्छी पहचान भी बनी थी। माता पिता के बुढ़ापे का सहारा बनना और शाजिया के भविष्य के सपनों को साकार करने का बोझ उसी के सर पर ही तो था। इसीलिये तो जल्द से जल्द नौकरी पाना चाहता था।

गर्मियों के दिन थे । वो गांव वापस लौटने के लिये शहर के बस स्टैण्ड पर खड़ा था। तभी दो तीन अनजान शख्स उसके करीब आकर पूछने लगे ‘‘ तू इकबाल अहमद है न।‘‘

“हां मैं इकबाल ही हूं”

“तो फिर चलो हमारे साथ।” उसे ज़्यादा बोलने का मौका ही नहीं दिया। पूरी रात उसे पुलिस स्टेशन में गुजारनी पड़ी थी। वहां और भी लड़कों को पकड़कर लाया गया था। बाकी दूसरों को तो राजधानी में जेल की कालकोठरी में भेज दिया गया। कुछ दिन बाद उन्हे कोर्ट में पेश किया गया। यहां आकर इकबाल को समझ आया कि किस गुनाह के तहत उसे यहां लाया गया है। सातों दोषियों को मार्केट में बम ब्लास्ट करने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। इकबाल ने कई बार गुजारिश की, कि वो निर्दोष है, मगर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। जज साहब ने तो साफ़ कह दिया कि ‘‘ हर गुनहगार अपने आप को बेगुनाह ही कहता है। इसका मतलब यह नहीं कि हम उसे छोड़ दें।‘‘ इन्सान होकर भी, उसमें इन्सानियत नहीं थी! क्या एक इन्सान इतना निर्दयी हो सकता है !

जेल में रहते हुए उसे उम्मीद थी कि जल्द ही कोई न कोई रास्ता निकल आयेगा और वह बाहर आकर अपने परिवार वालों से मिल सकेगा। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसकी सारी उम्मीदें, एक सपना बन कर रह गईं। वक्त बीतता गया। उसने महसूस किया कि इन्सान और भगवान दोनों ने ही उसे अपने से दूर कर दिया है। उसकी प्रार्थनाएं भी कुबूल नहीं हो रहीं। धीरे धीरे उसने प्रार्थना करना भी छोड़ दिया।

उसका जिंदह शरीर एक मशीन बनकर रह गया। जेल की घण्टी बजने पर उठना, किसी गूंगे जानवर की तरह जो काम कहा जाये रोबोट की तरह करते जाना, दो वक्त की रोटी खाना और रात को थककर सो जाना। सुख-दु:ख खुशी-गम, प्यार और नफरत, दोस्ती और दुश्मनी ये सब लफ़्ज अब बेमानी से लगने लगे थे।

इकबाल ने कॉलेज की पढ़ाई के समय एक हसीन दुनिया की कल्पना की थी। उसकी सोच में लॉजिक था, वो विज्ञान का छात्र रहा था। कुछ भी करने से पहले सोच समझकर, विचार कर, काम करता। इतना सब कुछ होने पर भी उसे अपने परिवार से प्यार और भगवान पर विश्वास था। लेकिन यहां आकर उसके सारे भरम एक-एक कर बिखरने लगे। जेल में आती रोशनी की किरणों ने उसे इस दुनिया के जादू को समझने की शक्ति दी। एक ऐसी दुनिया, जो अच्छे-बुरे में कोई फ़र्क ही नहीं समझती।

बीच-बीच में उसे कई बार कोर्ट भी ले जाया जाता। जहां वकील इस केस पर आपस में चर्चा -बहस करते थे। इकबाल को भी कई बार कटघरे में खड़ा कर सवाल किये जाते थे। ऐसे समय में उसका व्यवहार बिलकुल अजीब हो जाता। उसका दिमाग, उसका लॉजिक इस बहस को समझने से इनकार कर देता था।

उसे समझ में ही नहीं आता था कि इन सवालों के वो क्या जवाब दे। पुलिस अफ्सरों की धमकियां सुनकर वो बस हां या ना में ही जवाब दे पाता था।

अब उसे इस बात की भी चिंता न थी कि वो बाहरी दुनिया देख भी सकेगा! वो सारी उम्मीदें छोड़ चुका था। अब उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी। जेल की कालकोठरी में उसने खुद को एडजस्ट कर लिया था। सबके लिये बराबरी का दर्जा, हर इन्सान की आज़ादी, संविधान में दिये गये अधिकार, ये सभी सवाल अब उसके लिये महज सवाल ही रह गये थे।

आज भी इकबाल को जब कोर्ट में लाया गया वह एकदम चुपचाप आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया। न किसी से बात करना न किसी से बोलना। जज साहब ने 117 पेज का अपना फैसला कह सुनाया। इकबाल अपने ही खयालों में गुम था। वो बस कुछ ही शब्द समझ पाया।

उसने सुना था कि ‘‘मार्केट वाले बम ब्लास्ट केस में सात दोषियों में से तीन को मौत की सजा दी जाती है, तीन को आजीवन कारावास की । सबूतों के अभाव में, सातवें दोषी इकबाल की सजा माफ की जाती है।‘‘

कोर्ट की कार्यवाही पूरी होने के बाद बाकी सभी को जेल भेज दिया गया। इकबाल से सुपरीटेंडेंट ने कहा ‘अब तुम जेल से रिहा किये जाते हो।‘‘

‘‘क्या सचमुच मैं रिहा हो गया हूं! ‘‘ इकबाल ने पूछा।

“हाँ तुम्हारे खिलाफ सबूत न होने से तुम्हारी सज़ा माफ़ की जाती है। अब तुम आज़ाद हो कहीं भी जा सकते हो।” सुपरीन्टेंाडेंट ने उसके कांधे पर हाथ रखते हुए कहा।

यही सोचते-सोचते वह अपने गांव आ पहुंचा।

सुबह हो गई है। सूरज की किरणें पूरे गांव को रोशन कर रही हैं। किसान अपने खेतों की तरफ जा रहे हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं। हर कोई अपने काम में मशगूल है। इकबाल की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया। शायद उसे किसी ने पहचाना ही नहीं।

वह अपने घर आ पहुंचा। दरवाजे पर दस्तक दी। उसके भाई ने दरवाजा खोला। वो इकबाल को देखकर एकदम से चौंक गया। आंखों को मसलते हुए पूछा ” भाईजान, आप आ गये। हम तो समझे थे कि …..”

“हां , सबूत न मिलने से मेरी सज़ा माफ़ कर दी गई।” इकबाल ने सच बताना ही बेहतर समझा। “आज से मैं आज़ाद हूं।” इतना कहकर वह अंदर आकर सोफा पर बैठ गया।

“यहां तो सब कुछ बदल गया है। पुराना घर, पुराना फर्नीचर। बाबा का टेबल फैन और अम्मा की खाट भी नजर नहीं आ रही।” इकबाल ने हैरत भरी नजरों से देखते हुए पूछा।

“हां भाईजान आपको गये तो कितने बरस भी तो हो गये।” भाई ने हंसते हुए कहा।
इकबाल ने देखा कि रसोईघर में एक महिला काम कर रही है। दो बच्चे उसकी ओर देख कर आपस में बातें करते हैं और फिर दौड़ लगाकर चले गये। यानि कि मेरी भाभी और ये बच्चे भतीजा और भतीजी हैं। उसने घर में और भी बहुत सी नई चीजें देखी, जिन्हें पहचानना उसकी समझ से परे हैं। पूरे चौदह बरस बाद वो ये बाहर की दुनिया देख रहा है।इस बीच कितना कुछ बदल गया है।सेलफोन, कम्प्यूटर, डिजिटल कैमरा, डी. व्ही. डी. प्लेयर, ये सब तो उसने कभी देखे ही नहीं थे, न ही इनका कभी नाम ही सुना था।

दो महीने बीत गये। अब सब कुछ सामान्य हो रहा है। उसका भाई हररोज़ अपनी सरकारी नौकरी को चला जाता है, बच्चे स्कूल और भाभी अपने घर के कामों में मशगूल। किसी को भी इकबाल की परवाह नहीं। अम्मा और बाबा को गुज़रे तो एक जमाना बीत गया। घर में उनका कोई जि़क्र तक नहीं होता। न इकबाल ने कभी कुछ पूछा, न ही घर पर लोगों ने उसे कुछ बताया।

सवेरे पक्षियों के चहकने की आवाज पर इकबाल की नींद खुल जाती है। मुंह हाथ धोकर , चाय पी कर वो घर से बाहर चला जाता है। फिर घर में बस खाने के समय पर ही लौटता है। बाकी का पूरा समय वह शहर में घूमता रहता है। इकबाल ने महसूस किया कि उससे कोई भी खैर-खबर तक नहीं पूछता। कई पड़ोसी तो उसे पहचानते तक नहीं। वह कभी पड़ोसियों के खेतों में जाकर फल तोड़कर खाता है तो कभी पास में ही मस्जिद की सीड़ियों पर बैठ.. आते जाते नमाजि़यों को देखा करता है, तो कभी मंदिर में जाकर बैठ जाता है। कभी-कभी तो पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने भी लगता है।

अब उसकी समझ में यह नहीं आता कि ऐसी रिहाई किस काम की ? लोग क्यों चाहते हैं कि हमें आज़ादी मिले?
क्या इसी आज़ादी के लिये हमारे नेताओं और शहीदों ने कुर्बानी दी थी?

हर्षा मूलचंदानी

पति - श्री कन्‍हैया मूलचंदानी स्‍थायी पता - भोपाल, मध्‍यप्रदेश मातृभाषा - सिन्‍धी लेखन - सिन्‍धी, हिन्‍दी, गुजराती नौकरी - मध्‍यप्रदेश शासन, विधि मंत्रालय, भोपाल लेखन विधा - तुकांत, अतुकांत, मुक्‍तक, नज्‍़म, गज़ल, दोहा, गीत सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन , राष्ट्रीय पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित , राष्ट्रीय स्‍तर पर मंचो पर काव्यपाठ,सेमिनार में पेपर पढना एवं साहित्यिक कार्यशालाओं में उपस्थिति , मंच संचालन , आकाशवाणी भोपाल से प्रसारित साप्‍ताहिक सिन्‍धी कार्यक्रम में कम्‍पीयर

One thought on “र‍िहाई- विनोद आसुदानी की मूल अंग्रेजी कहानी का हिन्‍दी ल‍िप्‍यांतरण

  • डाॅ विजय कुमार सिंघल

    कहानी का कोई उद्देश्य समझ में नहीं आया

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