कविता
रेखाओ में बंद के निकाला हैं जीवन पर अब उनहे मिटाने का निश्चय कर चुका है मेरा यह मन……
तुम्हारे लब से पुरी बात भी निकली आज क्योंकी अंदर ही अंदर चुपी थी मैने साध
शर्मो हया की यह सदियों पुरानी चुनरी क्यों हैं मैने बांधी , मत पूछ मेरे से कौन हूँ मैं, मैं कोई देवी नही हुँ…. खदीयो से भी बनी हुँ में जितनी गीरी हुँ उतनी चढी भी हुँ में सिख कर वक्त से आगे बढ़ हुँ…..
सब रेखा को मिटाने दुनिया से लडी हुँ उनहे लांग कर अब बेफिक्र खडी हु बन्द कमरे में घुटन से उखड़ी उखडी थी मेरी सांसे सदियों से बन्द पड़े मेरे मन के दरवाजे,
अब डंके की चोट पर खोल उन्हें अब बार बार गुंजेगी भी ऐसी मेरी आवाजे…आवाजे है आवाजे है ऐसी मेरी आवाजे है …
— संगीता चौरडिया