गज़ल
लगाये पंख सपनों से गगन की हूर होती है
चले जब वक़्त का चाबुक वही बेनूर होती है
दिखे किरदार में आशा भरी सी नूर होती है
ढले हालात मौको पे ठगी सी जरूर होती है
न पाया संग न हर्ष खोजे भलाई ठौर ले चलना
बनी पहिचान चाही उमंग हर बेनूर होती है
सभी आक्षेप से अनजान हलचल शौर होती है
बने आभास से आगाज़ तक जब पूर् होती है
जमाना बदल में चाहें नई लगन की ठोर होती है
हमेशा खुद भरी उनकी सियासत गरूर होती है
थपेड़े सह बुरे हालात के बच मशकूर होती है
लियाकत ना कहें आये तो निगाहों दूर होती है
— रेखा मोहन