अवनति
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ, पत्रकारिता;
चाटुकारिता में गिर गया, अब भर-भरा।
सुरक्षा कवच है जो, जनतंत्र का;
गोलियाँ वह भी अब, बरसा रहा।
न्याय की तलवार जिसके हाथ है;
पंगु होकर, वह भी चिल्ला रहा।
सदन की गरिमा भी तार-तार है;
दौर चल पड़ा आरोप-प्रत्यारोप का।
उस पर भी छाया है, सत्ता का नशा;
शहर जल रहे हैं लेकिन, उसका क्या?
बलात्कारी, भ्रष्टाचारी जो भी हैं इस देश में;
फूल और मालाओं से सम्मान उनका हो रहा।
है, जन-मानस हिंदू-मुस्लिम में उलझा हुआ;
‘जहान’ कैसे हो रहा विकास हमारे देश का?
— मो. जहाँगीर ‘जहान’