ग़ज़ल
सताकर हमें तुम रुलाना नहीं
जलाकर अगन अब बुझाना नहीं|
किया है मुहब्बत तुम्ही से सनम
वफा चाहता हूँ भुलाना नहीं |
नजर से नजर को मिलाकर कभी
कसम लो, नजर अब चुराना नहीं |
लुकाते छुपाते यहां तुम मिले
मिले तो सही पर ठिकाना नहीं |
मुहब्बत करूं तो बताना बुरा
करूं क्या कहो तुम, छिपाना नहीं |
मिलन के दिनों की’ यादें बची
निशाने अभी तुम मिटाना नहीं |
मिलेंगे कभी फिर यही आस है
ये’ अरमान दीपक बुझाना नहीं |
कालीपद ‘प्रसाद’