कविता

अपना शहर

अपने शहर के घंटाघर का मित्र द्वारा भेजा चित्र
देख व्हाट्सएप पर
मन दौड़ गया बीते हुए कल में
याद आ गया अपना बचपन
वो स्कूल के दिन
और साथ के साथी
बड़े हुए पढ़े वहीं फिर नौकरी की उसी शहर में
बचपन की उछल कूद
दोस्तों के साथ दिन भर आवारागर्दी करना
वो सिगरेट के छल्ले उड़ाना
कभी बैठ दोस्तों की महफ़िल में
एक दो घूंट से गले को तर कर बहक जाना
होली का हुड़दंग भांग का सेवन
दीपावली पर रात भर ताश खेलना
दशहरा पर जाकर रामलीला मैदान
रावण का जलना देखना
सब आंखों के सामने तैर गया
जैसे कल की ही हो बात
डर डर के छुप छुप के घर में घुसना
पकड़े जाने पर झूठ बोल बच जाना
समय के साथ कुछ साथी कुछ दोस्त
शहर छोड़ चले गए
कुछ तो इस दुनिया
को ही छोड़ चले गए
दे गए बस यादें
चंद दोस्त और साथी बस रह गए
वक़्त के साथ अपना शहर मुझसे भी छूट गया
पर याद आता है अभी भी वो शहर अपना
क्योंकि अपना था
कोई मेरा ताऊ था कोई चाचा तो कोई छोटा तो
कोई बड़ा भाई था
बड़ा अच्छा लगता था जब कोई नाम से तो कोई आदर से पुकारता था
कोई न गैर सब अपने थे
एक दूसरे के सुख दर्द में शामिल थे
कहीं से आ जाए एक आवाज
सौ हाथ खड़े हो जाते थे
सब आंखो के सामने घूम गया
देखते ही अपने शहर का घंटा घर

ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020