होने लगे जो तबाह खुद….
होने लगे जो तबाह खुद तो पूछते हो तबाही क्यों…?
पहाड़ नदियाँ अन्तरिक्ष और चांद काबू में किया।
पनडुब्बियाँ तकनीकी वाहन ज्यूँ कोई जादू किया।
मानव स्वरूपी देवता देता नहीं है दिखाई क्यों…?
होने लगे जो तबाह खुद तो पूछते हो तबाही क्यों…?
प्रकृति तबाह धरती तबाह आकाश सारा दाव पर।
परमाणु ताकतें बने, थी कुल्हाड़ी अपने पाँव पर।
धुँआ नहीं सह पा रहे फिर आग ऐसी लगाई क्यों…?
होने लगे जो तबाह खुद तो पूछते हो तबाही क्यों…?
उड़ाया खूब मखौल प्रगति उन्नति के नाम पर।
आगे निरन्तर बढ़ रहे थे ज़िन्दगी के दाम पर।
प्रकृति के एक मज़ाक पर छूटती है रुलाई क्यों…?
होने लगे जो तबाह खुद तो पूछते हो तबाही क्यों…?
है पिंजरे में इंसान पँछी खुश हैं आसमान में।
जल में विचरते जीव खुश है शांति सारे जहां में।
चहुँ ऒर सन्नाटा है फिर देती है चीखें सुनाई क्यों…?
होने लगे जो तबाह खुद तो पूछते हो तबाही क्यों…?
ताकत के अपनी गुमान में जो कल तलक थे अकड़ रहे।
धड़कन हैं गुम और आँख नम घर तक में अपने डर रहे।
जिस पीर की दवा नहीं इस हद तलक वो बढ़ायी क्यों…?
होने लगे जो तबाह खुद तो पूछते हो तबाही क्यों…?