कुदरत का न्याय
कुदरत का न्याय
कभी जंगलों में घूमने, कंदमूल पर जीवन निर्वाह करने, प्रकृति की पूजा करने वाला मानव, साइंस और टेक्नोलॉजी के कंधों पर सवार हो, जाने कब इतना सबल हो गया कि उसने प्रकृति का ही दोहन शुरूं कर दिया ।
मानव ने प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का इतना दुरुपयोग किया कि आज विश्व में बढ़ते बंजर इलाके और रेगिस्तान, कटते जंगल, लुप्त होते पेड़-पौधे, जीव-जंतु, दूषित हवा-पानी, बाढ़ और सूखे का प्रकोप इत्यादि इस बात का साक्षात प्रमाण है। हमने प्रकृति का शोषण कर सच में ही एक भयावह स्थिति पैदा कर दी है । औद्योगिक क्रांति, एटम बम, न्यूक्लियर और अन्य सशक्त हथियार, मेडिसिन और सर्जरी में छलांगें लगाकर मानव इतना सशक्त हो चुका है कि उसको यह प्रतीत होने लगा था कि मानो अब तो कुदरत उसकी मुट्ठी में है ।
पर एक सच्चाई यह भी है कि कोई भी कुदरत को अपने अधीन नहीं कर सकता। आज एक कोरोना वायरस ने संपूर्ण मानव जाति को विनाश की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है। यह बात सही है कि देर- सवेर मानव इस आपदा पर भी काबू पा लेगा, पर वह मानव जो कल तक कुदरत को अपनी मुट्ठी में कैद हुआ प्रतीत कर रहा था, आज वही मानव कुदरत से उत्पन्न एक घातक वायरस के आगे अभी असहाय और लाचार है। उसके बड़े-बड़े अस्पताल, उसकी तमाम साइंस और टेक्नोलॉजी, संपूर्ण प्रगति व उन्नति सब इस समय बेमानी हो चुकी हैं।
और इस समय स्थिति यह है कि लगभग पूरा संसार ‘लॉकडाउन’ हो चुका है। वो शौर – शराबा, वाहनों की चीं-चीं पों-पों बेशुमार अपराध और अत्याचार, अनावश्यक रूप से प्रकृति का दोहन, चाहे कुछ ही दिनों के लिए ही हों, पर रुक से गए हैं । एक समय था जब मानव जानवरों को पिंजरों में बन्द करके रखता था और अब स्थिति यह है कि मानव खुद घरों में कैद होने को विवश हो गया है। शायद यही है कुदरत की खरी-खरी ।
अंजु गुप्ता