19 तारिक को जब ये ऐलान किया गया की 22 तारीख को जनता कर्फ्यू होगा जिसे समस्त जनता को हर प्रदेश, राज्य में पालन करना है और सायं 5 बजे अपने अपने घरों से निकलकर ताली, थाली आदि द्वारा जन सेवा में लगे डॉक्टर, नर्सस, पुलिस, सफाई कर्मचारियों आदि अन्य सभी जन सेवाओं में इस आपदा में अपना सहयोग व निस्वार्थ सेवा दे रहे हैं कर्मियों का धन्यवाद करें। जिसका पालन सभी ने बेहद ही उत्साह से दिल खोलकर हर घर, गली, मोहल्ले, शहर, नगर और राज्य में किया।
पर इस के बाद क्या पता था की 31 मार्च तक लॉकडाउन का ऐलान कर दिया जाएगा जिससे ज़िन्दगी एकदम थम सी गयी। सभी दुकानें, बस , रेल, हवाई सेवा सभी रोक दी गईं। यहां तक की टैक्सी, ऑटो, ई रिक्शा आदि भी। सिर्फ ज़रूरी सेवाएं ही उपलब्ध कराई जाएंगी जैसे दूध, सब्ज़ी,फल, दवाईयां , बेसिक ज़रूरत की चीज़ें। सभी दफ्तरों को भी बंद कर दिया गया। पर पहले दिन ही इसका ज़्यादा असर कुछ खास दिखा नहीं, जगह जगह लोग सड़कों पर नज़र आये, कोई सामान लेने की होड़ में तो कुछ यहीं टहलते। बार बार अपील की “घर में ही रहो सुरक्षित रहो” की बात को जैसे अनसुना कर रहे थे लोग। सख्त करवाई के निर्देश भी दे दिए गये पर लोगों के कानों पर तो जैसे जूं ही नहीं रेंग रही थी। जिसका नतीजा ये हुआ कई राज्यों में पुनः कर्फ्यू लगा दिया गया और लॉकडाउन को भी 14 अप्रैल तक बड़ा दिया गया। ये खबर और अधिक चिंताजनक थी इतने दिन लोग ज़रूरत के सामान के बिना घरों में कैसे रहेंगे। जो जहां था बस वहीं फंस गया। बॉर्डर भी सभी सील कर दिये गये। एक से दूसरे से तीसरे दिन हालात ये हुए गरीब जनता विफर उठी, जिनकी रोटी रोज़ की कमाई पर निर्भर थी, या वो मज़दूर जो सभी निर्माण कार्य पर रोक लगने से खाली हो गए थे, फैक्टरियां में काम करने वाले, ढाबे, होटल, दुकानों पर काम करने वाले लोगों की दास्तां दिल दहलाने लगीं। पलायन के लिए वह मजबूर पैदल ही अपने घर, गांव की ओर निकलने लगे -कोई बिहार, तो कोई बरेली, राजस्थान, कानपुर कोई लखनऊ आदि जगहों पर पैदल यात्रा के लिये लोग गुटों में या अपने परिवार जनों के साथ भूखे प्यासे निकल सड़कों पर मजबूर होकर की किसी तरह अपने घर पहुँच जाएं। वह घर कितने दिनों में पहुंचेंगे या पहुंच भी पाएंगे ये स्तिथि इतनी भयावह है जहां इंसान इतना मजबूर है हालातों के चलते की इस तरह पलायन के अलावा उसके पास कोई रास्ता ही नहीं। ये स्तिथि हर उस जगह की है जहां जहां लोग बिना काम के मजबूर और बेबस हैं। एक बेबस परिवार तो नेपाल पैदल निकल पड़ा है अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ तो कोई दो से तीन रिक्शा पर 5 दिन 5 रातों का सफर तय करने को। न घर है, न काम, न पैसा ऐसे में कोई करे भी तो क्या करे कोरोना का सोचे या अपने परिवार को भूख प्यास से बचाने का।
उनके लिए तो ये वो संकरी डगर है जहां आपदा विपदा हर ओर से ही है।
दूसरी ओर संपन्न व्यक्ति जिसे कोई अभाव नहीं उसे घर पर बैठना नहीं भा रहा। सड़कों पर कोई स्थिति का जायज़ा लेने या कोई टहलने निकल पड़ता है जब पुलिस के डंडे, उठक बैठक आदि सजाएं दी जाने लगीं तब जा कर सड़के थोड़ी खाली नज़र आने लगीं हैं। अभी तो 14 अप्रैल तक ये डगर बहुत मुश्किल है, देश में क्या हालात बनते हैं, कोरोना महामारी थमती है या ओर विकराल रूप लेती है, जनता में कितना संयम, कितना सब्र रहता है ये तो आने वाले दिन ही बताएंगे। पर इस बात में कोई दो राय नहीं इस पूरी व्यवस्था का सबसे दुर्भाग्य पूर्ण असर उन लोगों पर पड़ रहा है जिनकी रोज़ की कमाई ही उनका जीवन आधार थी। रोज़ कुआं खोदना रोज़ पानी पीना। मध्यमवर्गीय व उच्च वर्ग तो ये स्तिथि से खुद को उभार ही लेगा पर उन गरीबों का क्या होगा ये बेहद ही गंभीर सवाल है। भले ही सरकार कितने भी दावे या ऐलान कर उनकी सहायता के असल राह तो उतनी आसन नहीं न। ऐसे में ये कोरोना संक्रमण कैसे रुकेगा, कब थमेगा , ये स्तिथि कब तक रहेगी और समाचारों के रोज़ बढ़ते आंकड़े और डराते व प्रश्न सूचक लगाते हैं आखिर आने वाले दिनों में होगा क्या?? ये डगर उतनी भी आसान नहीं जितना ऐलान भर था। “घर में रहो सुरक्षित रहो” उनकी दुहाई कौन सुने जो पलायन को विवश हैं ताकि ज़िंदा रह सकें। और जो घर पर अपनों से दूर बंटे हैं वह ही कब तक
खुद पर इन अभावों में नियंत्रण रख पाएंगे?? सवाल अनेक हैं , भाव भी अनेक पर फिलहाल न कोई राह है , न कोई उत्तर सिर्फ “लॉक डाउन” दिल, दिमाग, हालात पर।।
— मीनाक्षी सुकुमारन