बहुत समझाया था
न करो कैद पिंजरे में
पर तुम्हें तो मुझे पिंजरे में बंद देख
आनंद लेना था।
मेरे रंग-बिरंगे पंखों को कतर- कतर कर
अपनी जागीर बनाना था।
प्रकृति से खिलवाड़ करके
अपनी सुख सुविधाएं जुटा मगन होना था।
अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके
मनुष्यत्व को आजमाना था।
मेरे खुले वृक्षों का बसेरा छीन
क्या पाया तुमने ?
तुम बैठे महलों में अपने
तरस रहे प्राण वायु को।
और मैं तड़प रही आजादी को
हम दोनों ही घुट-घुट कर जी रहे हैं।
पर तुमने- पिंजरे की सलाखों के अंदर की
बेचैनी को नहीं महसूसा।
समय नहीं रहता एक सा हमेशा
आज तुम्हारा है तो कल मेरा होगा।
कर्मों का खाता सबका लिखा जाता है।
उस दिन तुम नहीं समझे थे
आजादी क्या होती है।
तुम्हें नहीं सुनाई दी थी
मेरे चीखने चिल्लाने की आवाजें
क्योंकि तुमने गुलामी की
जंजीरों का दर्द नहीं सहा था।
तुम तो आजाद हवा में जन्मे थे
खुश होते थे मेरी खुशियां छीन कर,
मेरे अपनो से अलग करके।
अब समय बदल चुका है
कोरोना ने कैद कर लिया तुम्हें
अपने ही कवच में,
अब तुम्हें होगा अहसास मेरी गुलामी का।
कहावतें यूंही नहीं बनी हैं इनके मर्म को समझो
जैसे को तैसा मिलता है सदा
बोओगे जैसा एक दिन काटोगे वैसा।
— निशा नंदिनी भारतीय