सामयिक ग़ज़ल
जीवन घर तक ,पर सुखकर है ।
कितना प्यारा लगता दर है ।
अब विराम में भी गति लगती,
हर्ष भरा यह आज सफ़र है ।
जीवन लगता एक ग़ज़ल-सा,
खुशियों से लबरेज बहर है ।
शांत रहो,खामोश रहो सब,
अंधकार के बाद सहर है ।
ऊंचा उड़ना नहीं रुकेगा,
कायम मेरा हर इक पर है ।
वीराना भाता है अब तो,
मीठा लगता हर इक सुर है।
रहे बात यह अंतरमन में,
कभी न ठहरा सदा क़हर है ।
‘शरद’ अभी भी रौनक सारी,
कल मेरा अब से बेहतर है ।
— प्रो.शरद नारायण खरे