ग़ज़ल
अफ़वाहों का बाज़ार गरम है।
हुआ आदमी बिना शरम है।
उनको लाले पड़े जान के ,
फैलाते कुछ यहाँ भरम हैं।
करते राजनीति लाशों पर,
निंदा करने योग्य करम है।
धर्मध्वजा लेकर जो फिरते,
लूट मचाना बना धरम है।
क़ुदरत का जब डंडा पड़ता ,
तब होता आदमी नरम है।
नियम और क़ानून न माने,
कहलाता वह मूढ़ परम है।
‘शुभम’रोग को खेल समझता,
हैवानी हो गई चरम है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’